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१२६ : बोड तमा मनधर्म
बाले को यमराज नही देखता। यह हसना कैसा और यह मानन्द कैसा जब चारों तरफ बराबर आग लगी हुई ह ? अन्धकार से घिरे हुए प्रकाश को क्यों नहीं देखते हो? ४ एकत्व भावना
उत्तराध्ययन के अनुसार मनुष्य अकेला ही जमता ह और अकेला ही मरता है हर हालत म उसका कोई साथी नही ह ऐसा विचारना एकत्व भावना है । इसके अन्तगत साधक यह चिन्तन करता ह कि जीव सवथा अकेला ही रहता है। जन्म से बाल्यावस्था युवावस्था बढ़ापा और मृत्यु के समय तक उसे कोई दूसरा सहायक नहीं बन पाता। चाहे जितना धन वैभव घर-द्वार पुत्र-कलत्र हो मरते समय किसीका कोई साथ नही देवा । यह जीव द्विपद चतुष्पद क्षत्र घर धन-धाय और सर्ववस्तु को छोडकर तथा दूसरे कम को साथ लेकर पराधीन अवस्था म परलोक के प्रति प्रयाण करता है और वही कम के अनुसार अच्छी या बरी गति को प्राप्त करता है।
धम्मपद म भी एकत्व भावना का विचार उपल ध है। भगवान बुद्ध कहते है कि अपन से जात अपन से उत्पन्न अपने से किया हुआ पाप ही दुबधि मनुष्य को विदीण कर देता ह जिस प्रकार कि पाषाण से निकला बज पाषाणमय मणि को छेद डालता है। अपने पाप का फल मनुष्य स्वय भोगता है। पाप न करने पर वह स्वय शुद्ध रहता है प्रत्यक पुरुष का शद्ध अथवा अशुद्ध रहना उसी पर निभर है । दूसरा ( आदमी) दूसरे को शुद्ध नही कर सकता। इसलिए कहा गया है कि जितनी हानि शत्र शत्र की या वैरी वैरी की करता ह उससे अधिक बुराई झठे माग में लगा हुआ यह चित्त करता है।
१ धम्मपद १८ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दशनो का तुलनात्मक
अध्ययन भाग २ प ४२८ । २ धम्मपद १४६ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक
अध्ययन भाग २ पू ४२८। ३ उत्तराध्ययन ४।४। ४ वही १३१२४ १९७७ २ ॥३७ ४८ तुलनीय धम्मपद ४२ । ५ धम्मपद १६१ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दशनों का तुलनात्मक
अध्ययन भाम २ ४२५ । ६ पम्मपद १६५ सुलनीय उत्तराध्ययन २ ३६ ३७ । ७ धम्मपद ४२।