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पानिय सिखातों में तुलना १२७
ससार के सभी पदार्थ मुमसे भिन्न है और मैं उनसे भिन्न है। ऐसा विचार किया जाता है कि देहादि समस्त इन्द्रियां अथवा बाह्य पदार्थों से बात्मा का कोई लगाव नहीं बल्कि वे सारी चीजें मात्मा से एकदम भिन्न ही है। मादमी अकेला जन्मता है और अकेला मरता है। उसकी सज्ञा विज्ञान और पेदना भी व्यक्तिगत होती है। अन्यत्व भावना का मुख्य लक्ष्य साधक की बाह्य आसक्ति को कम करना है।
धम्मपद में अयत्व भावना का सुन्दर चित्रण नैरास्य-दर्शन के रूप में हमा है। कहा गया है अहो । यह तुच्छ शरीर शीघ्र ही चेतनारहित होकर निरथक काष्ठ की भांति पृथ्वी पर शयन करेगा। जिस प्रकार राजाओं के चित्रित रच जीण हो जाते हैं उसी प्रकार शरीर भी वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। जहां मूख लोग दुखी होते हैं और ज्ञानी लोगो को आसक्ति नहीं होती। इसलिए मनुष्य स्वय की रक्षा करे क्षणभर भी न चूके । क्षण को चुके हुए लोग नरक में पडकर शोक करते है। ६ मधि भावना
शरीर की अशुचिता का विचार करना अशचि भावना है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी शरीर की अशचिता एव अशाश्वतता का निर्देश है । उसमें कहा गया है कि यह शरीर अनित्य अर्थात् मणभगुर है और स्वभाव से अपवित्र है क्योकि इसकी उत्पत्ति शुक्र शोणित आदि अपवित्र पदार्थों से ही देखी जाती है तथा इस शरीर की अपेक्षा से इसम निवास करनवाला जीव भी अशाश्वत ही है अथवा इसमें जीवात्मा का निवास भी अशाश्वत ही है। इसके अतिरिक्त यह शरीर नाना प्रकार के द ख और क्लेशो का भाजन है क्योंकि जितने भी शारीरिक अथवा मानसिक द ख अथवा क्लेश है ये सब शरीर के आश्रय से ही होत ह । इसलिए यह शरीर अनेक प्रकार के दुखों और स्लेशो का स्थान है।
१ उत्तराध्ययन १८.१४ १५ १३३२५ । २ धम्मपद ४१। ३ वही १५१ । ४ वही १७१। ५ बही ३१५॥ ६ इमं शरीरं अणिम्म बसुइ असुइ सभव । असांसमायासमिस क्स-केसाणमायणं ।।
उत्तराभ्ययन १९१३।