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१२८ । बौद्ध तथा जैनधर्म
धम्मपद में भी कहा गया है कि अनेक प्रकार के वस्त्रालकारादि से सजाये हुए किन्तु भावों से भरे हुए मास बसा मज्जा आदि से फूले हुए अनक दुखों से पीडित तथा अनेक सकल्पोंवाले इस चित्रित शरीर को तो देखो जिसकी स्थिति स्वायी नहीं है। यह शरीर जरा-जीण रोगो का घर है क्षणभंगुर ह दगष का ढेर है और किसी समय खड-खण्ड हो जायेगा क्योंकि जीवन का अन्त ही मरण है ।
৩ आम भान
दुख अथवा कमबध के कारणो पर विश्वार करना आस्रव भावना है । परन्तु आसव से मुख्यतया पापास्रव को समझा जाता है । इसीलिए उत्तराष्ययन में पापासव के पाँच भेदों का संकेत किया गया है। बोद्ध-परम्परा म आस्रव भावना के सम्बन्ध में बुद्ध का कहना है कि जो कतव्य को बिना किय छोड देत है और अकतव्य करते हैं एसे उद्धत तथा प्रमत्त लोगो के आस्रव बढ़ जाते हैं । परन्तु जिनकी चतना शरीर के प्रति जागरूक रहती है जो अकरणीय आचरण नही करत और निर तर सदाचरण करत हैं एसे स्मृतिमान् और सचेत मनुष्यो के आस्रव नष्ट हो जात ह देखनेवाले तथा सदा दूसरो से चिढनवाले के आस्रव ( चित्त के वह चित्त के मैलो के विनाश से दूर हटा हुआ है। लेकिन जो सदा और रात दिन शिक्षा ग्रहण करत रहते हैं अर्थात अपने दोषों के क्षय और गुणो की वृद्धि करने में लगे रहते हैं और एक ही निर्वाण जिनका परायण है अत्तिम उद्देश्य है उनके आस्रव अस्त हो जाते ह ।
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दूसरो के दोष
मल ) बढ़त हैं । जागरूक रहते हैं
८ सबर भावना
सवर भावना म आत्रव के विपरीत कर्मों के आगमन को रोकने के उपायों पर विचार किया जाता है। सवर भावना आस्रव भावना का विधायक पक्ष है । उत्तराध्ययन
१ धम्मपद १४७ ।
२ वही १४८ १४९ १५ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ पृ ४२६ ।
३ उत्तराध्ययन ३४।२१ १९/१४२ ।४५ २९।११ ।
४ धम्मपद २९२ २९३ तथा जैन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का
तुलना मक अध्ययन भाग २ ४२९ ।
५ धम्मपद २५३ ।
६ वही २२६ ।