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पार्मिक सिवानों से तुच्या १२९ सूत्र में कहा गया है कि संयम से यह बीय बालव से रहित हो जाता है तथा कायगुप्ति से जीव संवर को प्राप्त करता है और सबर के द्वारा कायगुप्तिवाला श्रीव सर्व प्रकार के पापासबों का निरोष कर देता है।
धम्मपद में भी सवर-भावना का उल्लेख मिलता है। बुद्ध का कथन है कि आंख का सवर ( सयम ) उत्तम है कान का सवर उत्तम ह प्राण का सवर उत्तम है जीभ का सवर उत्तम है । काया वाणी और मन का सबर भी उत्तम ह। जो सवत्र सवर करता है वह द खों से छट जाता है। इसलिए भिक्ष को सदैव इस सम्बन्ध में स्मृतिमान् रहना चाहिए।
९ निजरा भावना
जिन कर्मों का बघ पहले हो चुका ह उनको नष्ट करन के उपायो का विचार करना निजरा भावना है । उत्तराध्ययनसूत्र म कहा गया है कि नाले बन्द कर देने व अन्दर के जल को उलीच-उलीचकर बाहर निकाल देने पर जैसे महातालाब सूख जाता है वैसे ही आस्रवद्वारों को बन्द कर देने और पूर्वसचित कर्मों को तपस्या के द्वारा निर्जीव करने पर मारमा पुद्गल-मुक्त हो जाती है ।
१ लोक-भावना
लोक की रचना आकृति स्वरूप आदि पर विचार करने के लिए लोक-भावना है । जन दशन के अनुसार यह लोक किसीका बनाया हुआ नही है और अनादिकाल से चला आ रहा है। आत्माए भी अनादिकाल से अपने शुभाशुभ कार्यों के अनुसार परिभ्रमण कर रही है । इस लोक के अग्रभाग पर सिद्धस्थान है। सिद्धस्थान के नीचे ऊपर के भाग म स्वर्ग और अधोभाग में नरक है। इसके मध्य भाग मे तियञ्च एव मनुष्यो का निवास है । लोक की इस आकृति एवं स्थिति पर विचार करते हुए साधक सदैव यही सोचे कि उसका आचार एसा हो जिससे उसकी मात्मा पतन के स्थानो को
१ उत्तराध्ययन २९।२७ तथा जैन बौद्ध तथा गीता के आचार-वशनों का
तुलनात्मक अध्ययन भाग २ पृ ४२९ । २ उत्तराध्ययन २९।५५ । ३ पम्मपद ३६ ३६१ तथा जैन बौद्ध तथा गीता के बाचार दर्शनों का तुलनात्मक
अध्ययन भाग २ ३ ४३ । ४ उत्तराध्यपन ३ १५६।