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१५.चोड तथा नव छोडकर ऊध्वलोक में जन्म ले या लोकान पर जाकर मक्ति प्राप्त कर सके। यही इस भावना का सार है।
धम्मपद में भी कहा गया है कि नीच धर्म का सेवन नही करना चाहिए प्रमाद से दूर रहना चाहिए मिथ्या धारणा में नही पडना चाहिए। क्योकि ऐसा करने से आवागमन का चक्र बढ जाता है। यह लोक अधे के सदृश है यहां दखनेवाले ही है जाल से मुक्त पक्षी की भांति बिरले ही स्वर्ग जाते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि यह विश्व बौख-दर्शन की तरह अभावरूप नही है अपितु यह उतना ही सत्य और ठोस है जितना हम प्रतीत होता है ।
११ बोषि-खुलभ भावना
बोषि दलभ भावना के द्वारा यह चितवन किया जाता ह कि समाग का जो बोष प्राप्त हुआ ह उसका सम्यक आचरण करना अत्यन्त दुष्कर है। इस दलभ बोध को पाकर भी सम्यक आचरण के द्वारा आत्मविकास अथवा निर्वाण को प्रास नही किया तो पुन एसा बोष होना अत्यन्त कठिन है। जैन विचार में चार चीजो की उपलब्धि अत्यन्त दलम कही गयी है-ससार म प्राणी को मनुष्यत्व को प्राति धर्म श्रवण शुद्ध श्रद्धा और सयम-माग में पुरुषाथ ।
धम्मपद मे कहा गया है कि मनुष्यत्व की प्राप्ति दलभ है मानव-जन्म पाकर भी जीवित रहना दुलभ है कितने अकाल म मृयु को प्राप्त हो जाते है । मनुष्य बनकर सबम का श्रवण दुलभ है और बद्ध होकर उत्पन्न होना तो अत्यन्त दलभ है। १२ धर्म-भावना
धर्म के स्वरूप और उसकी आरमविकास की शक्ति का विचार करना धम भावना है । धर्म के वास्तविक स्वरूप का विचार करना आवश्यक है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि ससार में एकमात्र शरण षम ही है इसके सिवा अन्य कोई १ उत्तराध्ययनसूत्र का ३६वां अध्ययन तथा जन बौद्ध तथा गोता के आधार
दशनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ प ४३१ ।। २ धम्मपद १६७ । ३ वही १७४। ४ उत्तराध्ययन ३६८-११ तथा जैन बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनो का
तुलनात्मक अध्ययन भाग २ पृ ४३१ । ५ धम्मपद १८२ तथा जैन बौद्ध तथा गोता के आचार-दर्शनो का तुलनात्मक अध्ययन भा