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समानता और बिमिलता : २४९
चोर और डाकुमों का भी उपद्रव था उन्हें पकड़कर दण्ड देने के लिए न्याय व्यवस्था थी। अपराध के अनुसार दण्ड दिया जाता था। कभी-कभी अपराधी को मृत्युदण्ड भी दिया जाता था । वध-स्थान पर ले जाते समय अपराधी को एक निश्चित वेश भूषा धारण करवाकर नगर म घुमाया जाता जिससे अन्य लोग इस प्रकार का अपराध न करें।
मानव की प्रवृत्ति त्याग-वैराग्य से हटकर भोग विलास को पोर अधिक थी। सन्तगण उन्हें सदा उद्बोषित करते रहते । अनेक धार्मिक दाशनिक सम्प्रदाय थे। इन सबम श्रमण और ब्राह्मणों का आधिपत्य था। श्रमगो के त्याग-वैराग्य और उग्र तप का सवत्र स्वागत होता था। राजा भी उनके कोप से डरते थे। चारों वणवाले जैन श्रमण होते थे किन्तु क्षत्रिय और ब्राह्मण अषिक थे।
इस तरह उत्तराध्ययन में समाज और संस्कृति का जो सामान्य चित्रण मिलता है वह तत्कालीन अय ग्रन्यो का अवलोकन किए बिना पूर्ण नही कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त उत्तराध्ययन के मख्यत धार्मिक अथ होने से तथा किसी एक काल विशेष की रचना न होने से इसम चित्रित समाज व संस्कृति से यद्यपि किसी एक काल विशेष का पूर्ण चित्र उपस्थित नही होता है फिर भी तत्कालीन समाज एव सस्कृति की एक झलक अवश्य मिलती है।
इस तरह दोनों ग्रन्थों का सूक्ष्म अवलोकन करने पर पता चलता है कि तत्कालीन समाज-व्यवस्था की एक झलक इनमें अवश्य मिलती है। यह निश्चित है कि उस समय समाज चार वर्णो म विभक्त था जाति-प्रथा का जोर था ब्राह्मणो का आधिपत्य था प्रजा पनसम्पन्न पी शद्रों की स्थिति चिन्तनोय यो नारी विकास की ओर कदम उठा रही थी तथा धार्मिक एव दानिक मतान्तर काफी थे। गौतम बुद्ध एव महावीर स्वामी के कारण इनम महत्त्वपूर्ण सुधार हुए और इन्हें नवीन प्रेरणा भी मिली।