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________________ २४८ पौड समानधर्म इस प्रकार हम देखते हैं कि उस समय जाति और वर्ण के माधार पर सामाजिक समठन था। जात-पात की बीमारी बहुत बढ़ी-चढी हुई थी। शूद्रो की स्थिति अत्यन्त बयनीय थी। सर्वत्र उनका निरादर होता था । ब्राह्मणो का प्रभुत्व था। वषम के नाम पर हिंसा को प्रोत्साहन दे रहे थे । वे वेदो के वास्तविक रहस्य को नही जानते थे। क्षत्रिय और वश्यो के पास बहुत धन था। क्षत्रिय प्रजा का पालन करते और भोग विलासो म भी निमग्न रहते थे तथापि कुछ क्षत्रिय राजा जैन-दीक्षा भी लेते थे। वैश्य भारत म ही नही अपितु विदेशो में भी व्यापार हेतु जाते थे। परिवार म माता पिता का स्थान सर्वोपरि था । परिवार के पालन-पोषण का दायित्व पिता पर था । पुत्र के प्रति सभी का स्वाभाविक स्नेह था। उसके बिना घर सूना-सूना था। पिता की मृत्यु के पश्चात वही परिवार का ध्यान रखता था। उसके दीक्षा लेने पर माता पिता को कष्ट होना स्वाभाविक था । नारियो की स्थिति भी ग भीर थी। वह भोग विलास की साधन मानी जाती थी । पुरुष जसा पाहता वसा कठपुतली की तरह उसको नचा सकता था परन्तु कितनी ही नारियां नर से भी आग थी वे पुरुषो का भी प्रतिबोष देती थीं। विवाह की प्रथा भी उस समय प्रचरित थी। पुत्र और पुत्रियो के अधिकांश सम्बन्ध पिता ही निश्चित किया करता था। स्वयवर और गधव विवाह की प्रथा भी उस समय प्रचलित थी। बह विवाह भी होते थे। कभी व्यापार के लिए विदेश म जानवाले वही पर विवाह कर लेते थे। कुछ दिन घरजमाई भी रह जाते थे। विवाह का कोई निश्चित नियम नही था किन्तु सुविधा के अनुसार विवाह कर लेते थे। किसीके मर जाने पर उसका दाह-सस्कार करने का प्रचलन था । दाह सस्कार प्राय पिता या पुत्र किया करता था। आजीविका के लिए या युद्ध आदि के लिए पशु और पक्षियों का पालन किया जाता था । हाथी घोडा गाय बल आदि प्रमुख थे । भोजन मे धी दूध दही मिष्टान्न फल अन्न मुख्य था। कुछ लोग मास और मदिरा का भी उपयोग करते थे। क्षत्रिय लोग युद्ध म निपुण होते थे। वे चतुरगिणी सेना के साथ युद्ध करते थे। विविध प्रकार के अस्त्र और शस्त्र का भी उपयोग होता था । वैश्यो के साथ कभी-कभी उनकी पलियाँ भी समुद्र-यात्रा करती थी। समाज में सुख और शाति का संचार करने के लिए शासन-व्यवस्था थी। शासन का अधिकार क्षत्रियो के हाथों में था। शासन करनेवाला व्यक्ति राजा के नाम से अभिहित किया जाता । वह देश की उन्नति का ध्यान रखता था। कभी-कभी अधिकार के नशे में पागल बनकर अपन कतव्य को भी वह विस्मृत हो जाता था। शत्रुयो का सदा भय बना रहता था।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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