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पांच भेद -क्षेत्रमा वाति मा कुल बार्य कर्म मार्य भाषा बार्य । उस समय पाश्रम व्यवस्था भी थी। गृहस्वाधम को उत्तराध्ययन में घोराम कहा गया है। बाकी तीन मात्रमों का उल्लेख सीधे कप में दृष्टिगोचर नहीं होता है। प्रत्येक वर्ष और आश्रमवालों के कार्य भिन्न थे।
उत्तराध्ययनसूत्र में और सामान्यरूप से प्राचीन जैन-साहित्य में विभिन्न वर्गों जातियों आदि के विषय में निम्न प्रकार की सामग्री प्राप्त होती है१ ब्राह्मण
चारों वर्षों में ब्राह्मणों की प्रमुखता थी। अधिकांश ब्राह्मण जैनषम के विरोधी ये अत जैनधर्म में ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों को श्रष्ठता प्रदान की गयी । तीयंकर भत्रिय-कुल में ही उत्पन्न होते है। इसी कारण महावीर को देवानन्दा साह्मणी के गम से त्रिशला क्षत्रियाणी के गर्भ में परिवर्तित किया गया। लेकिन उत्तराध्ययनसूत्र में कही भी ब्राह्मणों को भत्रियो से निम्नकोटि का नही बताया गया है। अपितु उसे वेदवित यज्ञार्थी ज्योतिषांग विद्या के ज्ञाता और धमशास्त्रों के पारगामी स्वात्मा और पर के आत्मा का उद्धार करने का अपने म सामथ्य रखनेवाला सबकामनाओ को पूर्ण करनेवाला तथा पुण्यक्षेत्र आदि विशेषणो से अलकृत किया गया है। आगम साहित्य म अनेक स्थानों पर श्रमण और ब्राह्मण शब्द का प्रयोग एक साथ किया गा है जिससे यह भी प्रतीत होता ह कि दोनों का समान रूप से आदरणीय स्थान था।
१ जैन आगम-साहित्य मे भारतीय समाज पृ २२१ । २ घोरासम चइत्ताणं ।
उत्तराध्ययन ९।४२ ॥ ३ निशीषणि ४८७ की चूणि आवश्यकचूणि १ ४९६ जन भागम-साहित्य म
भारतीय समाज पृ २२४ ।। ४ कल्पसूत्र २।२२ मावश्यकचणि प २३९ तुलनीय डॉ जी एस धुय कास्ट एण्ड क्लास इन इण्डिया १ ६३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परि
शीलन ३९३ । ५ जेय वेयविक विप्पाजनटठा यजे दिया।
जोइ समविक जेय जेय पम्माण पारमा ।। जे समस्या समुत्तु पर अपाणमब य । तेसि अन्नमिणं देय मो मिक्स सम्बकामिय ।।
___ उत्तराध्ययन २५१७-८ तमा १२।१३ । ६ मावश्यकचणि १ ७३ तुलनीय संयुत्तनिकाय समगबाह्मणसूच २ १ १२९ ।