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८६ बौद्ध तथा धर्म
इन उदगारो से यह निश्चित हो जाता है कि यहां बाह्य शत्रुओं के साथ लडकर उन्हें जीतने की बात नही अपितु आन्तरिक शत्रुओ के साथ जझकर उन्हें जीतने की बात कही गयी है । यह युद्ध कैसे करना चाहिए यह मा यहाँ बता दिया गया है अर्थात् आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतना चाहिए । इसका अथ हुआ अपना आत्मबल सकल्पशक्ति और वीर्यो लास बढाकर अन्त करण म स्थित महान शत्रमओ पर नियन्त्रण करना । जैनधम के अनुसार अन्त करण के प्रबल शत्रु है-राग द्वेष और मोह । इन्हीके कारण क्रोष मान माया लोभ काम तष्णा मादि दुष्ट वत्तियां उत्पन्न होती ह और उहीके कारण कमबन्धन होता है जिसके फलस्वरूप नाना गतियो और योनियो म परिभ्रमण करना और जम मरणादि दुख सहना होता है। वैसे देखा जाय तो दुष्कृत्यो या दवृतियो म प्रवृत्त मात्मा ( मन आदि इद्रियसमह ) भी आमा का शत्रु बन जाता है। इस प्रकार आन्तरिक शत्रओं की गणना अनेक प्रकार से होती है । तात्पय यह है कि जो इन आतरिक शत्रओ को जीत लेत है वे जिन कहलाते हैं ।
___सम्भवत बौद्धों न जनो से ही इन दोनो शब्दो को ग्रहण किया। अहत एक अवस्था या पदविशेष है। उस अवस्था को बुद्ध न ही नहीं अपितु उनके अनेक शिष्यो और शिष्याओ न भी समय-समय पर प्राप्त किया जिसके अनेक उदाहरण है। बौद्ध और जनधम दोनो द्वारा अहत शद के प्रयोग पर टिप्पणी करते हुए प बचरदास डोशी ने लिखा ह कि धम्मपद के प्रारम्भ म ही बुद्ध भगवान का विशेषण अरहव बतलाते हुए नमस्कार किया गया है यथा--नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स । यह उसी प्रकार ह जैसे जन ग्रन्थों में नमो अरिहताण । किन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि बौद्ध प्रयोग म अरहत षष्ठी विभक्ति मह और विशेषण के समान व्यवहृत है । अत वह श्रद्धय या आदरणीय के मथ म ही प्रयुक्त प्रतीत होता है । वहाँ अहत से वह अथ नही निकलता जो नमो अरिहताण के अरिहताण से निकलता है।
धम्मपद के सातव वग्ग का नाम अहन्तवग्ग है। इस वग्ग म अहतो के सम्बन्ध म विचार किया गया है। इस वग की प्रत्येक गाथा म जैन महतो या
१ अप्पामित्तममित्त च दप्पटिठय सुपटिठओ ॥ उत्तराध्ययनसूत्र २ ॥३७ । तुलनीय
अत्तना वकत पाप अत्तना सकिलिस्सति । असना मकत पाप अत्तना व विसुज्झति । सुद्धि असुखि पच्चत्त नान्नो अन्न विसोषये ॥धम्मपद १६५ तथा जैन बोद नथा गीता के आचार-दशनों का तुलना मक अध्ययन भाग १ १ ३६३ । २ महावीर-बाणी ४।