SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पार्मिक सिद्धान्तों से तुलना ८७ तीथकरों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चर्चा की गयी है। महत् शब्द का ऐसा ही प्रयोग धम्मपद की १६४वी गाथा में किया गया है यो सासन अरहत अरियान पम्मजीविन । धम्मपद के टीकाकार आचाय बद्धघोष ने यहाँ अरहत को विशेषण और सासन को विशेष्य बताया है और यही ठीक भी है। इस प्रकार यहाँ अरहत का अथ सम्मानास्पद समझना चाहिए । अब यह विचार करना चाहिए कि बौद्धो के अनुसार अहंत का क्या अथ है ? खुद्दकपाठ म इसका अथ इस प्रकार दिया हुआ है- दसइ गहि समन्नागतो अरहाति वुज्जति -अर्थात जिसम दस लक्षण वतमान हो वह अहत है। इससे बोष होता ह कि बौद्धो की दृष्टि म अहत् का बहुत ऊचा किन्तु एक निश्चित स्थान था और एसा जान पडता है कि वह स्थान केवल बद्धत्व के नीचे था। अत मालम पडता है कि बौद्धधम म अर्हत्व की भावना किसी दूसरे सम्प्रदाय से ग्रहण की गयी है और वह सम्प्रदाय निस्सन्देह जन सम्प्रदाय है । इस प्रकार हम देखते हैं कि नतिक जीवन का आदश अहतावस्था माना गया है। महत अवस्था से तात्पय तृष्णा या राग द्वेष की वृत्तियों का पूण भय है । जो राग द्वष और मोह से ऊपर उठ चका ह जिसमें किसी भी प्रकार की तृष्णा नही ह जो सुख दुख लाभ अलाभ और नि दा प्रशसा मे समभाव रखता है वही अहत है । इसके अतिरिक्त अहंत को स्थितात्मा केवली उपशान्त आदि नियमो से भी जाना जाता ह । धम्मपद म अहत के जीवनादर्श का निम्न विवरण इस प्रकार है जिसने अपनी यात्रा को समाप्त कर लिया है जिसन चिन्ताओ को याग दिया है जिसने सब तरह से अपने आपको स्वाधीन कर लिया है और सब बन्धनो को काट दिया है वह कष्टो से परे है । उनको घर में सुख मालम नही होता वे भली प्रकार विचार कर घर को याग देते है जैसे राजहस अपने घरबार अर्थात् झील को त्याग देत हैं। वे पुरुष जिनके पास धन नही है जो खास किस्म का भोजन करते है जिन्होने पण स्वाधीनता पद निर्वाण को प्राप्त कर लिया है उनका माग आकाश म विधरनेवाले पक्षियो के माग की तरह समझना कठिन है । इस प्रकार के कतव्यपरायण पुरुष भमि तथा इन्द्रवज की तरह सहनशील हो जाता है वह कोच से रहित सरोवर की तरह है वह पुनजन्म की प्रतीक्षा नहीं करता। उसके विचार स्थिर हो जात है और कर्म क्षोभरहित हो जाते हैं तब वह मौनी कहलाता है । जो असृष्ट वस्तु को पहचानता है १ जन बौद्ध तथा गीता के आचार-वर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ डॉ सागरमल जन प ४१७ । २ धम्मपद अरहन्तवग्ग ९ -१९ ।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy