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८८ पौडसमा नपर्म
जिसने सब बधनों को तोड़ दिया है और सब इच्छाओ को याग दिया ह वही श्रेष्ठ मनुष्य है । ऐसा मनुष्य जहां कही भी विहार करता है वह भमि (पवित्र ) है।
भदन्त बोधानद महास्थविर द्वारा लिखित बौद्धचर्या-पदति म शब्द के विषय म निम्नलिखित टिप्पणी प्रास होती ह अहत-जीव मुक्त । अह तीन प्रकार के होते हैं-बुद्ध प्रत्येक बुद्ध और श्रावक अर्हत् । इनम जो पुरुष बिन गुरु की सहायता के स्वयं अपने प्रतिभा बल से सवज्ञता या पणज्ञान प्राप्त करके । लाम करते हैं वे बुद्ध प्रत्येक बुद्ध क लाते हैं। और जो पुरुष बुद्ध प्रदर्शित प चलकर सवज्ञता और निर्वाण लाभ करत हैं वे श्रावक अहत् कहलाते है । ब प्रत्येक बद्ध म यह अतर ह कि कम ऋषि ज्ञान ऋषि आदि सब प्रकार की अ प्रतिभा तथा जिसम असस्पेय अप्रमेय प्राणियो के उदबोधा करने को प्रतिभा है वे बुद्ध कहलाते है और जो अपन प्रतिभा बल से अय प्राणियो का उदबोधन न सकत केवल स्वय निर्वाण लाभ कर सकत हैं वे प्रत्यक बुद्ध कहलाते है। बुद्ध जैनो म भी प्रसिद्ध है।
श्रावक की निर्वाण प्राप्ति के लिए चार अवस्थामओ का विधान दिया गया १स्रोतापन्न
स्रोताप न शब्द का अथ ह धारा म पडनवाला । जब साधक का चित्त प्र एकदम हटकर निर्वाण के माग पर आरूढ हो जाता है जहां से गिरन की स नही रहतो तब उसे साताप न क त ह । जैसे किमी तीव्र जलधारा म पि (तिनका ) अवश्य एक दिन समग तक पहुच जाता है उसी प्रकार स्रोतापन्न भी अधिक-से-अधिक सात जमो म अवश्य सम्पण क्लेशो का प्रहाण करने म र आता है। उसका आठवां जम नहीं होता। वह मनुष्य देव आदि उच्च भू उत्पन्न होकर एक-दो जम में भी अहत् हो सकता है कि तु किसी भी हालत से अधिक जम नही लेता। २ सहुदागामी
स्रोतापन हो जान के बाद आगे मार्गाभ्यास करने पर व्यक्ति । (कामराग) देष (प्रतिषा) एव मोह ( अविद्या ) इन तीन सयोजनों को ५
१ उत्तराध्ययनसूत्र १८०४६ । २ खुदकनिकाय सम्पा भिक्ष जगदीश काश्यप (खुद्दकपाठ-रतनसुत) ३ दीघनिकाय प्रथम भाग पृ १३३ १९५ द्वितीय भाग १ . भाग १ ८४ १ २।