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अध्याय ४ धम्मपद मे प्रतिपादित बौद्ध आचार और उसकी उत्तरा ध्ययन में प्रतिपादित जैन आचार मीमासा से तुलना
आचार और विचार जीवन-यात्रा की गाडी के दो पहिय है तथा परस्पर सम्बद्ध हैं । डा मोहनलाल महता ने अपनी पुस्तक जन आचार म इसे निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है। आचार बिना विचार की प्ररणा से सम्भव नही ह और उसी प्रकार विचार को व्यावहारिक रूप देने के लिए आचार की अनिवायता होती ही है। जब तक आचार को विचारो का सहयोग प्राप्त न हो अथवा विचार आचार रूप म परिणत न हो तब तक जीवन का यथाथ विकास नही हा सकता।
मत सिद्धात और यवहार अथवा ज्ञान एव क्रिया अथवा विचार एव आचार के सम्यक सन्तुलन से ही व्यक्तित्व का विकास होता है । इस द्वैत के लिए शन एव आचार शब्द का भी प्रकारा तर से प्रयोग होता है । इन दोनो को उपयुक्तता एब अनिवायता के सम्बध म बताया भी गया है कि जिस प्रकार अभीष्ट स्थान पर पहुचन के लिए निर्दोष आँख व पैर दोनो आवश्यक है उसी प्रकार आध्यात्मिक सिद्धि के लिए दोषरहित ज्ञान एव चारित्र दोनों अनिवाय हैं। दूसर शब्दो म नानविहीन आचरण नत्रहीन पुरुष की गति के समान है जब कि आचाररहित ज्ञान पगु पुरुष को स्थिति के सदृश है।
भारतीय दशनो म माचार एव विचार दोनो को समान अधिकार दिया गया है । आचार एव विचार को ही प्रकारान्तर से क्रमश यवहार और सिद्धान्त अथवा क्रिया एव ज्ञान अथवा घम एव दशन कहा गया है।
अष्टाङ्गिक माग बौद्धधम का चौथा आयसत्य दु खनिरोधगामिनी प्रतिपदा का अपर नाम आय अष्टाङ्गिक माग है । यह अष्टाङ्गिक माग बौद्धधम की आचार मोमासा का धरम साधन है। इस मार्ग पर चलने से प्रत्यक व्यक्ति अपने दुःखो का नाश कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। इसलिए यह समस्त मार्गों में श्रेष्ठ माना गया है। माय
१ देख जैन आचार मेहता मोहनलाल ५ ५। २ मग्गानङ्गिको सेटठो। पम्मपद २७३ ।