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२६.बीड या गर्न
पालि बौद्ध-साहिय में दुख की व्याख्या सामान्यत इस प्रकार से की गयी है यथा--जीवन दुखदायी है पदा होना दुख ह बड़ा होना रोगी होना क्षीण होना मरना शोक करना रोना पीटना चिन्तित होना परेशान होना दुख है अप्रिय के साप सयोग प्रिय से वियोग इच्छा की पूर्ति न होना भी दुख है सक्षप में पांचों उपादान स्कन्ध दुख है। धम्मपद में कहा गया है प्रियों ( पञ्चकाम गुणों) का सग न करे और न कभी अप्रियों का प्रियो का। न देखना और अप्रियो का दशन दुखद होता है । अत दुःख है दुख सत्य ह तथ्यस्प ह अवितष रूप ह और अन्यथा नही है । धम्मपद में भी कहा गया है सभी सस्कार ( पदाथ ) दुखरूप है इस प्रकार जब प्रशा से मनुष्य देखता है तब वह दु खो से मक्ति को प्राप्त हो जाता है । यही निर्वाण का मार्ग है।
__यह सब दुख है ( सवमिद दु खम) पुरुषार्थ में दुख है उसके रक्षण और विनाश में भी दुख है । यह सारा संसार ही दुख से व्याप्त है । द ख से जल रहा है । इसलिए हंसी-खुशी और सुख इस संसार में कहाँ है ? धम्मपद में कहा गया है जब नित्य जल रहा है तो हंसी कैसी और आनन्द कैसा । अन्धकार से घिरे प्रदीप की खोज क्यो नही करते ? ससार अनादि और अनन्त है और वह अविया (बज्ञान) तथा तृष्णा से सचालित है। इस संसार म न तो एसा कोई श्रमण बाह्मण देवता मार या मनग्यतम सत्त्व ही अवशिष्ट है जो ससार में विद्यमान निम्न पाँच वस्तुबो से मछता रहा हो अर्थात जो रोग के अधीन होते हुए भी रुग्ण न हुआ हो जो मृत्यु के आश्रित है वह न मरा हो जो क्षय के वशीभूत होते हुए भी क्षीण न हुआ हो और वह भी जो विनाश के मुख में बैठे होने पर भी नष्ट न हुआ हो।
बुद्ध के अनुसार प्राणियो की ससार यात्रा अनादिकाल से चली आ रही है। उनके उद्गम-स्थान का पता नही है जहां से चलकर अविद्या म फैसकर मनुष्य अपने को तृष्णा के बन्धन में बांधकर इधर-उधर भटकते फिरते है। उनका कहना है किन
१ दीघनिकाय २१३ ५ १ २२७ तथा बुढचर्या १५।४७ । २ मा पियेहि समा मछि अपि यहि कुदाचन । पियान अदस्सन दुक्ख अप्पियान च दस्सन ।
धम्मपद गाया-सख्या २१ । ३ वही २७८ । ४ को न हासो किमानन्दो निच्च पज्जलिते सति ।
अन्धकारेन बोनद्वापदीपं न गवेस्सथ ॥