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धम्मपद में प्रतिपावितस्थ
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स्वय कष्ट नही पहुँचाता और कष्ट देने के यदि कोई कष्ट देव तो उसको भला नही कारणो से अहिंसा घम का पालन करता है
है कि उस अथवा स्थावर किसी भी जीव को मन वचन और शरीर के द्वारा बो लिए किसीको प्रेरित नहीं करता और समझता अर्थात् जो तीन योग और तीन उसको आर्य (ब्राह्मण ) कहा जाता है ।
क्योंकि
अत ये आर्यसत्य कहलाते
धम्मपद में कहा गया है कि सत्यों में चार आर्यसत्य श्रेष्ठ है । इन्हें आय ही जानते हैं वे ही उनका सम्यक ज्ञान करते हैं है । य आर्यसत्य यथाथ हैं मिथ्या नही है क्योंकि दूसरों वे वैसे नही देखे जात हैं जैसे कि य आर्यों के द्वारा देखे जाते हैं । धम्मपद में जो बौद्ध प्रयोका सार है चार आयसत्यों की व्याख्या बहुत ही सुन्दर ढंग से की गयी है।
(जो आय नहीं है ) से
जो बुद्ध धम और सब की शरण में गया है वह मनुष्य दुःख दुख की उत्पत्ति दुःख का विनाश अर्थात् निर्वाण और निर्वाण की ओर ले जानवाले श्रेष्ठ अष्टाङ्गिक मार्ग इन चार आयसत्यो को अपनी बुद्धि से देख लेता है । चार आयसत्य ये हैं-१ दुस आयसत्य २ दुखसमुदय आर्यसत्य ३ दुःखनिरोष आर्यसत्य और ( ४ ) दुख निरोधगामिनी प्रतिपद आयसत्य । इन आयसत्यों का ज्ञान किन्ही किन्हींको स्रोतापन्न अवस्था म आशिक रूप में होता है और किन्ही किन्हीको सकृदागामी और अनागामी अवस्था म । किन्तु महत - अवस्था में पूर्णरूप से इनका ज्ञान होता है । जिस सत्य की पहले जानकारी होती ह उसीका पूर्वनिर्देश किया गया है। अब प्रश्न उठता है कि तृष्णा जो दुख का हेतु ह उसका पूर्वनिर्देश क्यो नही है और दुख जो तृष्णा के कारण उत्पन्न होता है तथा जो फलरूप है उसका बाद में निर्देश क्यों नही है ? इसका उत्तर यह है कि जिस बात में प्राणो फँसा है जिससे पीडित होता है जिससे मुक्ति चाहता है और जिसकी वह परीक्षा करता है वह और क्या है दुख ही तो है और इसीलिए इसे ही पहला सत्य बतलाया गया है । मुमक्षु इसके बाद उसके हतुरूप समदय सत्य (तृष्णा) और इसके बाद निरोष सत्य ( निर्वाण ) तथा उसके बाद माग ( अष्टाङ्गिक माग ) को खोजता है ।
१ मध्यान चतुरो पदा -- धम्मपद २७३ ॥
२ धम्मपद गाथा - संख्या १९ ।
३ दुक्ख - दुक्ख समप्पाद दुक्खस्स च व्यतिक्कम । अरियन्टङिगकं मग्ग दुक्ख पसमगामिन ||
४ बौद्ध योगी के पत्र पू ११ १११ ।
वही १९१ ।