________________
मोट तथा रोम-माचार | १३५
अधिगम करे। दूसरे के
धम को मानो । भगवान् कहते हैं कि मेरा धर्म एहिपस्सिक और पच्चतं वेदितब्ब है । अर्थात् भगवान् सबको निमन्त्रण देते हैं कि आओ और देखो इस घम की परीक्षा करो ।' प्रत्येक को अपने चिस में उसका अनुभव करना होगा। यह ऐसा धम नही है कि एक माग की भावना करे और दूसरा फल का साक्षात्कार करने से इसका साक्षात्कार अपने को नही होता हैं कि हे भिक्षुओ तुम अपन लिए स्वय दीपक हो आर्य अष्टमिक मार्ग के प्रत्येक अग का विशिष्ट स्वरूप १ सम्यक दृष्टि
।
इसलिए भगवान् कहते
दूसरे की शरण मत जाओ ।
1
दृष्टि का अथ ज्ञान है । सत्काय के लिए ज्ञान की मित्ति आवश्यक होती है । आचार और विचार का परस्पर सम्बन्ध नितान्त घनिष्ठ होता है । विचार की भित्ति पर ही चार खडा होता है। इसलिए आचार-माग में सम्यक दृष्टि पहला अग मानी गई है । जो व्यक्ति अकुशल को तथा अकुशल मूल को जानता है कुशल तथा कुशल मूल को जानता है वही सम्यक दृष्टि से सम्पन्न माना जाता है । सम्यग्दृष्टि के बिना शील और समाधि की प्राप्ति नही होती न ही बिना शील और समाधि के सम्यग्दृष्टि की। धम्मपद म कहा गया है कि जो दोषयुक्त काय को दोषयुक्त जानकर तथा दोषरहित काय को दोषरहित जानकर यथाथ धारण करते हैं व प्राणी सम्यक दृष्टि को धारण करके सद्गति को प्राप्त होत हैं। दुख द खसमुदय द खनिरोष और द खनिरोधगामिनी प्रतिपद इन चार आय सत्यों का यथाथ ज्ञान सम्यग्दष्टि है । सम्यग्दृष्टि के परिणामस्वरूप ही सदाचार की प्राप्ति होती है । धम्मपद में कहा गया है कि जो शील और सम्यक दर्शन से युक्त अर्थात सम्यक दृष्टि से सम्पन्न धर्म मे स्थित सत्यवादी और अपने कार्यों को करनेवाला है उसे लोग प्रिय बताते हैं ।
१ दीघनिकाय प्रथम भाग पृ ७५ ।
२ वही द्वितीय भाग पु ८ 1
३ बज्ज चवज्जतोनत्या अवज्जन्व अवज्जतो ।
सम्मादिठिसमादाना सत्ता गच्छत्ति सुग्गति ॥
४ दीघनिकाय द्वितीय भाग पृ २३३ । ५ सील दस्सन सम्पन्न धम्मटठ सम्यवादिन । अन्तनो कम्मकुम्बान तं जनो कुरुते पिय ॥
धम्मपद ३१९ ।
वही २१७ ।