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दिव्यज्ञान की अवस्था में है । यद्यपि उत्सराध्ययन में इनके स्वरम धाविका विशेष विचार नहीं किया गया है तथापि इनके विषय में कुछ संकेत भवस्य मिलते है, पो निम्नलिखित है
इसका अम है शब्दवन्य शास्त्रज्ञान । परन्तु सत्यश्रुतज्ञान वही है जो बिनोपविह प्रामाणिक शास्त्रों से होता है। जिनोपविष्ट प्रामाणिक ग्रन्थ अग (प्रधान) और अगवाह (अप्रधान ) के मेव से दो प्रकार के है । अत सुखज्ञान भी प्रथमत दो प्रकार का है। अग ग्रन्थों की संख्या बारह होने से अगश्रुतशान भी बारह प्रकार का है तथा अगवा ग्रन्थों की कोई सीमा नियत न होने से अनेक प्रकार का है। अग अन्यों की प्रधानता होने से उत्सराज्यमन में समस्त श्रुतज्ञान को द्वादशा का विस्तार कहा गया है। द्वादशाङ्ग के वेत्ता को ही बहुश्रत कहा गया है तथा बहुश्रत के महत्व को प्रकट करने के लिए सोलह दृष्टान्तों से उसकी प्रशसा की गयी है।
ये सभी दृष्टान्त साभिप्राय विशेषणों से युक्त है अत ग्रन्थ में श्रुतज्ञानी के कुछ अय सहज गुण गिनाये गये हैं जो इन दृष्टान्तो से पुष्ट होते है जैसे - अज्ञानी समुद्र की तरह गम्भीर प्रतिवादियों से अपराजेय अतिरस्कृत विस्तृत श्रतज्ञान से पूर्ण जीवों का रक्षक कर्म भयकर्ता उत्तम अर्थ की गवेषणा करनेवाला और स्व-पर को मुक्ति प्रास करानेवाला होता है। इसी तरह अतनानी के अन्य अनेक गुण समझे जा सकते हैं । सत्यज्ञान की प्राप्ति में शास्त्रों का स्थान प्रमुख होने से अवज्ञानी को बहुत प्रशंसा करके उसका फल मुक्ति बसलाया गया है।
१ उत्तराध्ययन २८१२१ तथा उत्तराध्यवनसूत्र एक परिशीलन १ २०९। २ दुवाल संग जिणक्खाय ।
उत्तराध्ययन २४१३ । बारसगविऊ बुझे । वही २३७ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन
३ जहा संखम्भिपय निहिय दुहमओ वि विरायइ ।
सुयस्सपुण्णा विउलस्स ताइणी सवितुकम्म गइमुत्तम गया ।
उत्तराध्ययन ११।१५-३१। ४ वही ११॥३२ २९।२४ ५९ ११८ १ २ वषा उत्तराध्ययन पूत्र एक
परिशीलन पृ २१ । ५ उत्तराध्ययनसून एक परिशीलन १ २१ ।