________________
७ बौड तवा जनपम व्यक्ति का शरीर शुभ कर्मोदययुक्त है अर्थात् वह व्यक्ति सब प्रकार से सुखी है । इसी तरह जो व्यक्ति पापी होता है वह सब प्रकार से दुखी होता है। इस प्रकार पुण्य
और पाप का फल सुख और दुःख है । सुख एव दु ख यक्ति के व्यक्तित्व अर्थात् शारी रिक एव मानसिक गठन पर अवलम्बित है जिसका निर्माण पुण्य और पाप अर्थात् शुभ और अशुभ कर्मों के आधार से होता ह ।।
पण्य और पाप दोनो बन्धनरूप हैं अत मोक्ष-साधना के लिए हेय माने गये है । पारमार्थिक दष्टि से पुण्य और पाप दोनो म भेद नही किया जा सकता क्योकि दोनो ही अन्ततोगत्वा बन्धन के हेतु है इनका भेद केवल यावहारिक स्तर पर है। दोनो का क्षय करन से ही मुक्ति मिलती है।
पण्य आध्यात्मिक साधना म सहायक तत्व ह । शुभ कम पदगल का नाम पण्य है। पण्य के कारण अनेक ह । यथा-दौन दुखी पर करुणा करना उनकी सेवा शुश्रषा करना दान देना आदि अनेक प्रकार से पण्योपाजन किया जाता है । जैनषम में मुनि सुशीलकुमार ने पण्य की उपमा वायु से की है। इसी प्रकार जैन आचार्यों के अनसार जिस विचार एव आचार से अपना और दूसरो का अहित हो वह पाप है। विचारको के अनुसार पापकम को उत्पत्ति के स्थान तीन है--राग द्वेष और मोह । लेकिन उत्तरा ययन म पापकम की उ पत्ति के स्थान राग और द्वेष ये दो ही मान गय हैं। इस प्रकार पापकों का आचरण करनेवाले सभी जीव इस लोक तथा परलोक म दु ख को प्राप्त होते है। इसलिए पापकर्मों के बदले पण्य ( शुभ ) कर्मों का ही आचरण करना चाहिए। उत्तरा ययनसूत्र के १९व अध्ययन म मृगापुत्र
१ उत्तराध्ययन २ ॥१४॥ २ दुविह खदेऊण य पण्णपाव निरगण सव्वओ विप्पमुक्के । तरित्ता समदद व महाभवोध समुददपाले अपणागम गए ।
यही २१॥२४॥ ३ जनघम मुनि सुशीलकुमार प ८४ । ४ रागद्दोसे य दो पावे पावकम्म पव-तेण ।
उत्तराध्ययनसूत्र ३१।३। ५ एव पयापेच्च इह च लोए कडाण कम्माण न मोक्ख अत्यि ॥
वही ४।३। ६ हुयासण जलन्तम्मि चियासुमहिसो विव । दढो पक्को य अवसो पावकम्महि पावियो ।।
बही १९५७ ।