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परतवानपने तृष्णा और अनुशय के समूल नष्ट न होने से यह दु ख बार बार उत्पन्न होता रहेगा। इसीलिए भगवान् बुद्ध ने कहा है कि समुदय के निरोष से ही दुख का निरोष होता है। परमार्थ से दु खनिरोध निर्वाण ही है क्योंकि निर्वाण को पाकर यह तृष्णा निरुद्ध हो जाती है पृथक हो जाती है और रागरहित ही निरोष या निर्वाण कहलाता है। भगवान ने इसे एक दीपक की उपमा द्वारा इस तरह समझाया ह कि जैसे सेल और बत्ती के होने से प्रदीप जलता रहता है और उस प्रदीप में कोई समय-समय पर तेल न गले और बत्ती को न उकसावे ठोप नही कर तो वह प्रदीप पहले के सभी आहार समाप्त हो जाने पर और नये न पाने से बुझ जायगा वैसे ही बन्धन म डालनेवाले धौ म बुराई ही बुराई मात्र देखते रहने से तृष्णा नही बढती प्रत्युत धीरे-धीरे यह समस्त दुःखस्कन्ध ही निरुत हो जायगे। तुष्णा के नाश से अविद्या का पूर्णतया प्रहाण हो जाता है । अविद्या के प्रहाण से सस्कार एव विज्ञान आदि समस्त प्रत्ययों का भी प्रहाण हो जाता है । इन समस्त दुखो का विप्रणाश होना ही निरोष कहलाता है। ४ दुखनिरोषगामिनो प्रतिपद
प्रतिपद् का अथ ह-माग । यही चतुर्थ आयसत्य है जो दुखनिरोष तक पहुंचानेवाला मार्ग है । दुखनिरोध की ओर ले जानवाला माग ही दुखनिरोषगामिनी प्रतिपद् है। मध्यम माग ( मसिम पटिपदा) भी इसीका नाम है। दुख की शान्ति अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति इसी माग के द्वारा सम्भव ह। लोक में जिससे पाया जाता है उसे माग कहते हैं। आचाय बुखघोष कहते हैं कि यह आलम्बन से वषा निर्वाण के अभिमुख होने से दुखनिरोध को प्राप्त कराता है अतएव इसे दुख निरोध की ओर जानेवाला दुखनिरोपगामिनी प्रतिपद कहा गया है। यह माय मान है।
अब प्रश्न उठता है कि दु खनिरोधगामिनी प्रतिपद आय सत्य क्या है ? जो कामोपभोग का हीन प्राम्य अशिष्ट अनाय अनथकर जीवन है और जो अपने शरीर १ समुत्य निरोधेन हि दुक्खं निरुग्मति ।
म बन्नपा तेनाह यथापि मूले अनुपहवे ।। बस्हे छिन्नो पि एक्लो पुनरेव हति ।
एवम्पि तहानुसये अमूहत निम्न-तति दुक्खमिदं पुनप्पन ॥ धम्मपद ३३८ । २ सयुत्तनिकाय २।८६ पृ ७४। ३ बही ५ ७४। ४ उपाध्याय बलदेव बोरवचन-भीमांसा ५१। ५ मिधर्मकोश पृ ११३।