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________________ ३ सम्मारिका (साबार) सम्यक्पादित का बर्थ है समाचार माचार पति का यह मूल्य है जिसके द्वारा वह महान के महान् और निम्न से भी निम्न बन सकता है। समाचार पक्ति को नीचे से उच्च सिंहासन पर न देता है और दुराचार उपसिंहासन से नीचे गर्त में उकेला देता है । सम्बक दर्शन और सम्यक् ज्ञान होने पर भी यदि व्यक्ति में सदाचार नहीं है जो यह सम्यक वचन और सम्यक माग निरर्थक है क्योंकि उनका प्रयोजन सदाचार में प्रवृत्ति कराना है। मत कहा गया है कि पढ़े हए वेद व्यक्ति की रक्षा नहीं कर सकते है। प्रश्न उठता है कि सदाचार क्या है? यदि सदाचार को एक वाक्य में कहना चाहें वो कह सकते है कि दूसरे के साथ वैसा ही व्यवहार करना जैसा हम दूसरे से स्वय के प्रति पाहते है। समाचार को उत्तराध्ययन में अहिंसा के म में उपस्थित किया गया है तथा इस अहिंसा के साथ सत्य चोय ब्रह्मचय और बन सम्पत्ति का त्याग ( अपरिग्रह) इन चार अन्य बाचारपरक नियमो को बाड़ा गया है। ये ही जैनधम के पांच प्रसिद्ध है। शेष जितने भी नियम और उपनियम है सब इन पांच व्रतों की ही पूर्णता एवं निर्दोषता के लिए है। ज्यो-ज्यों इन बातों के पालन से सदाचार में वृद्धि होती जाती है त्यों-स्यों व्यक्ति मुक्ति की ओर बढ़ल बाता है। इसी प्रकार ज्योज्यो वह मुक्ति की ओर अग्रसर होता जाता है त्यों-त्यों पूर्वबद्ध कम मात्मा से पृषक हो जाते हैं और ज्यों ज्यों पूर्वबद्ध कर्म बास्मा से पथक होते जाने है त्यो-त्यों मारमा निर्मल से निर्मलतर अवस्था को प्राप्त करती हुई मुक्ति को प्राप्त कर लेती है। चारित्र के पांच प्रकार है -(१)सामायिक (२) छेदोपस्थापना ( ३ ) परिहार विशुसि ( ४ ) सूक्ष्मसम्पराय तथा ( ५) यथास्यातचारित्र । १ वेया अहीया न भवन्ति ताण । उसराध्ययन १४।१२ तथा उत्तराध्ययनसून एक परिशीलन पृ २२८ । पसुबन्धा सम्पबेयाजदछ । पावकम्मणा । न त तायन्ति दुस्सील कम्माणि बलबन्तिह ।। उत्तराध्ययन २५३ । २ एवं परितकरं पारित होइ बाहिय ॥ यही २८ ॥ तथा-परितमापारगुणनिए तबो अणुत्तर संचम पालिया। निरासवे संबवियागकम्म उहाणं विस्नुसम धुर्व ।। बही २५२ च्या उत्तराध्ययानसूत्र एक परिशीलन पु. २२९ । ३ सामाश्यप छेत्रोपट्मपर्ण मशीन। परिहार विसीय मुद्रमं बहसंपराय ॥
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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