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४ तप
माया गय
उत्तराध्ययन में कही कहीं चारित्र से पृथक जो तप का बणन मिलता है वह उसके महत्व को प्रकट करने के लिए किया गया है। तप एक प्रकार की अग्नि है जिसके द्वारा सैकडो भावो के सचित पर्व कर्मों को शीघ्र हो जलाया जा सकता है । ग्रन्थ म कषामरूपी शत्रओं के आक्रमण पर विजय प्राप्त करने के लिए तप को बाण एवं अर्गलारूप बतलाया गया है । अत कभी-कभी तप को चारित्र से पथक बतलाया गया है अन्यथा वह चारित्र से पृथक नहीं है क्योंकि इसमें जो तप का वणन मिलता है वह साधु के आधार का हो अभिन्न अंग है और साधु के आचार से सम्बन्धित कुछ क्रियाओ को हो यहाँ तप के रूप म बतलाया गया है । आत्मसयम जो कि चारित्र की आधारशिला है तप उससे पृथक नही है ।
( २ ) ऊनोदरी
तप को बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से सवप्रथम दो भागो में विभाजित किया गया है और फिर बाह्य तप और आभ्यन्तर तप को पुन छ भागों में विभक्त किया गया है। इस तरह कुल मिलाकर १२ प्रकार के तपों का वजन प्रथम है । उन १२ प्रकार के तपो के क्रमश नाम है - ( १ ) अनशन (३) मिक्षाचर्या ( ४ ) रस-परित्याग (५) कायक्लेश ( ६ ) सलीनता या fafar शयनासन ( ७ ) प्रायश्चित ( ८ ) विनय (९) वैयावृत्य ( १ ) स्वाध्याय ( ११ ) ध्यान और ( १२ ) व्युसंग या कायोत्सग । उपयुक्त म प्रथम छ तप बाह्य शरीर की क्रिया से अधिक सम्बधित होन के कारण बाह्य तप कहलाते हैं तथा अन्तिम छ तप आत्मा से अधिक सम्बन्धित होने के कारण आभ्यन्तर तप कहलात हैं । बाह्य तपो का प्रयोजन आभ्यन्तर तपो को पुष्ट करना है । अत प्रधानता आभ्यन्तर तपो की है । बाह्य तप मात्र आभ्यन्तर तपों की ओर ले जाने में सहायक हैं ।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन सम्यक ज्ञान सम्यक चारित्र तथा तप आत्मविकास की क्रमिक सीढ़ियाँ हैं मोक्षमाग के साधन हैं क्योकि इनके द्वारा क्रम क्रम से आत्म विकास होता जाता है कषाय एव कम क्षीण होते जात हैं स्वानुभूति की परिधि का विस्तार होता जाता है तथा अन्त म एक ऐसी अवस्था आती है जब साधक मोल
अकसाय अहक्वाय छउमत्यस्स जिणस्वा ।
एय चयस्तिकर पारित होइ महिय ।।
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उत्तराध्ययन २८ ३२ ३३ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पृ २३ १ वही ९/२ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन पू ३२९ ३ ।
२८ ३४ १९८९ तथा उत्तराध्ययन
२ उत्तराध्ययन ३ । ७८ २९३ सूत्र एक परिशीलन पृ ३३१ ।