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का अधिकारी बन जाता है। जिस प्रकार किसी कार्य की सफलता के लिए इ ज्ञान और प्रयत्न इन तीन बालों का सयोग आवश्यक होता है उसी प्रकार संसार के दुखों से मुक्ति पाने के लिए भी विश्वास ज्ञान और सदाचार के संयोग की बावश्यकता होती है जिसे ग्रन्थ में सम्यग्दशत सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के नाम से कहा गया है । ये तीनों बौद्ध-दशन के शील समाधि और प्रज्ञा की तरह अलग-अलग मुकि के तीन मार्ग नहीं हैं बल्कि तीनो मिलकर एक ही माग हूँ । यद्यपि ग्रन्थ में कही कही ज्ञान के पहले चारित्र का तथा दशन के चारित्र का भी प्रयोग मिलता है परन्तु इनकी उत्पत्ति क्रमश होती है ।
रत्नत्रय का निर्माण करते
पहले ज्ञान व
उत्तराध्ययनसूत्र म तो प को मोक्ष का मार्ग बताया उप का अन्तर्भाव कर दिया है काही विधान किया गया है।
सम्यक ज्ञान सम्यक दर्शन सम्यक चारित्र और गया है। लेकिन जैन आचार्यों ने सम्यक चारित्र म जिसके कारण परवर्ती साहित्य में त्रिविध साधना मार्ग इस तरह विश्वास ज्ञान और सदाचार ही मुक्ति के साधन हैं । ये तीनों मिलकर एक ही माग का निर्माण करते हैं क्योंकि मुक्ति में साक्षात कारण चारित्र को पूर्णता मानी गयी है 'शन और ज्ञान के सम्भव नहीं है। ये तीनो कारण प्रसिद्ध हैं ।"
तथा चारित्र की पूर्णता बिना जैन-दर्शन में रत्नत्रय के नाम
और प्रज्ञा का श्रद्धा और प्रज्ञा
बौद्ध दर्शन में त्रिविध साधना भाग के रूप में शील समाषि वधान है। कही कही शील समाधि और प्रज्ञा के स्थान पर बीय का भी विधान है। वस्तुत वीय शील का और श्रद्धा समाधि का प्रतीक है | श्रद्धा और समापि दोनो इसलिए समान है क्योंकि दानों में चित्त विकल्प नहीं होते हैं। इस
१ नाण च दंसण चैव चरित च तबोतहा । एस मग्गुतिपन्नतो जिणेहि वरदसिहि ||
उत्तराध्ययन २८ २ ।
२ नाण च दसणं चैव चरित चैव निच्छए ।
वही २३ ३३ तथा जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ १ २१ ।
३ भारतीय दर्शन राधाकृष्णन् एस पू ३२५
४ देख जैन बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ प २३ ।
५ सुत्तनिपात ९।२२ तुलनीय धम्मपद ५७ २२९२३ सपा जैन बौद्ध और गीता के चार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ १ २१-२३ ।