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________________ पालिari सुना १२५ अर्ष किया होता है अर्थात जो कुछ किया जाता है यह कर्म है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जीव के राग-देषरूप परिणामों के निमित्त से जो रूपी बचेतन द्रव्य जीव के साप सम्बस होकर ससार में भ्रमण कराते है कर्म है। कर्म के बीज राग और देष है कर्म मोह से उत्पन्न होता है कम जन्म-मरण का मूल है और पम-मरण ही दुख है। यह जीव द्वारा किये जाने के कारण कर्म कहलाता है। कर्म जब आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं तो वे मुख्य रूप से माठ रूपों में परिवर्तित हो जाते है जिन्हें कर्मों के मुख्य प्रकार कह सकते है। आठ मूल को या कर्म प्रकृतियों के नाम क्रमश इस प्रकार है (१) ज्ञानावरणीय (२) शनावरणीय (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु ( ६ ) नाम (७) गोत्र और (८) अन्तराय कर्म । इनम प्रथम चार कर्मों को धातिया कम कहते है क्योंकि ये आत्मा के गुणों का पात करते है। शेष चार कर्म अधातिया है क्योकि ये आत्मस्वरूप का पात नहीं करते । ग्रथम इसीलिए चार धातिया कर्मों के विमष्ट होने पर जीव को जीवन्मुक्त मान लिया गया है। क्योकि शेष चार अधातिया कम आयु के पूर्ण होने पर एक साथ बिना १ जन बौद्ध तथा गीता के आचार दशनो का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ २ उत्तराध्ययन ३३६१ १६ । ३ रागो य दोसो वि य कम्मबीय कम्म च मोहप्पभव वयति । कम्म च जाई मरणस्स मूल दुक्ख प जाई मरण वयति ॥ वही ३२१७ । ४ नाणस्सावरणिज्ज दसणावरण तहा। बेयणिज्ज तहा मोह आउकम्मं तहेव य ।। नामकम्म च गोय च अन्तराय तहेव य । एवमेयाइ कम्माइ अटठेव उ समासमो ॥ वही ३३२ ३ सया उत्तराध्ययन सूत्र एक परिशीलन १ १५४-१६१ । ५ पसत्य जोग परिवन्नेयर्ण अणगारे अणसषासज्येव सबेइ। उत्तराष्पयन २९।८। पेयणिज्ज भाउय नामंगोतब एए पत्तारि विकम्म से जुपय सह। बहो २९।७३ और बाणे २९॥४२ ५९ १२।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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