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बौडरान-माचार १९
निषेधात्मक । पाप पुण्य का प्रभाव नहीं है। पुण्य के अभाव का अर्थ है कि व्यक्ति ने जो कम किया है वह न सत् है और न असत् । जब व्यक्ति का आररण नैतिक आदश के अनुकल होता है तब वह पुण्य होता है किन्तु जब नैतिक आदर्श के प्रतिकल होता है तब पाप होता है। धम्मपद का कथन है कि जिसका किया हया पापकर्म पुण्यकम से ढक जाता है वह इस लोक को वैसे ही प्रकाशित करता है जैसे कि मादकों से निकला हुआ चन्द्रमा । अत पुण्य चरित्र के उत्कष का तथा पाप से चरित्र के क्षय का सकेत मिलता है।
पुण्य और पाप को विभिन्न श्रेणियां होती है। व्यक्ति के नैतिक और अनैतिक कम के अनुपात में ही उसकी नैतिक योग्यता की वृद्धि अथवा उसका क्षय होता है। व्यक्ति की नैतिक योग्यता की वृद्धि जब अधिक होती है तब वह अधिक पुण्य अजित करता है। इसके विपरीत व्यक्ति की नैतिक योग्यता म ह्रास भी होता है जिससे पाप की मात्राओ का संकेत मिलता है। धम्मपद म कहा गया है कि पापकम करनेवाला इस लोक म दुखी होता है और परलोक म जाकर भी अर्थात् वह दोनों ही लोको म दुखी होता है । वह अपने कुत्सित कम को देखकर शोक करता है और दुखित होता है जब कि पुण्यकम करनेवाला इस लोक म प्रसन्न रहता है और परलोक में जाकर भी अर्थात वह दोनो लोको में आनन्दित होता है और प्रमोद करता है।
धम्मपद भी नैतिक साधना की अन्तिम अवस्था म पण्य और पाप दोनो से ऊपर की बात कहता है और इस प्रकार वह भी समान विचारो का प्रतिपादन करता है । धम्मपद में भगवान बुद्ध कहते हैं कि यदि मनव्य पाप करता है तो उसे बार-बार न करे उस पाप म स्वच्छन्दतापवक रत न होब क्योंकि पाप का सचय दुख कारी होता है । वह राख से ढंको हुई अग्नि के समान मूख को जलाता हुआ उसका पीछा करता है। इसलिए मनष्य कल्याणकारी काय करने के लिए शीघ्रता करे और पाप से चित्त को निवारण करे क्योंकि पाप का सचय दुखकारी लेकिन पुण्य का
१ धम्मपद गाथा-सख्या १७३ । २ वही १५ १७ तथा जैन बौद्ध तथा गोता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक
अध्ययन भाग १ ३३६ ।
४ वही ११७ ।