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में भी विस्तार से प्राह्मण की कर्मामुसारी परिभाषा है। और उस पन्य में जैन दृष्टिकोण से उत्तम यश की कल्पना की गयी है जिनमें जंगम और स्थावर जीवों की बलि दी जाती है उन्हें श्रीत द्रव्य यज्ञ कहते है। जैसे अश्वमेव बाजपेय ज्योतिष्टोम बादि । ये यज्ञ बहुत खर्चीले पडते थे अत साधारण जनता इन यशों को नहीं कर सकती थी। स्मृति से प्रतिपादित यशो को स्मार्त यज्ञ कहते है। दोनों का विधान अलग-अलग है। दोनो म मुस्य भेद बलि को प्रथा को लेकर है । स्मार्तपक्षों में बलिदान को जीव हिंसा समझकर निषिद्ध कम माना गया है। इनमें हिंसा नहीं होती है अपितु इनका सम्पादन घत धान्य आदि से होता है। इन यनों में याजक की भावना हिंसा करने की नही रहती है फिर भी जो स्थावर बीवो की हिंसा इस यज्ञ की व्यवस्था में होती है वह नगण्य है । अत इन यज्ञों का विरोध नहीं किया गया है। भावयज्ञ को उत्तराध्ययन में सर्वश्रेष्ठ यज्ञ कहा गया है । इस यज्ञ के सम्पादन में बाह्य किसी सामग्री की आवश्यकता नही पडती है। कोई भी इस यज्ञ को कर सकता है। उत्तराध्ययन में इस यज्ञ के विभिन्न नाम है जो अपनी साथकता लिए हुए हैं जैसे-यमयश अहिंसा यश सत्य अचौर्य ब्रह्मचय और आकिञ्चनभाव । अज्ञानमूलक पशु-हिंसा-प्रधान
१ देखिए धम्मपद का छब्बीसा बाह्मणवग्ग तथा उत्तराध्ययन का पचीसा
यज्ञीय प्रकरण । विस्तृत विवेचन इसी अध्याय में आगे किया गया है। २ वियरिज्जइ खज्जइ भुज्जईय अन्न पभय भवयाणमेय ॥
उत्तराध्ययन १२०१ तपा जैन बौद्ध तथा गोता के आचार-वशनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग २ पृ ४९५४९६॥ ३ अच्चमुते महाभाग।
न ते किंचि न अच्चिमो । भुवाहि सालिम कूर
नाणावजण-सजुयं ॥ उत्तराध्ययन १२॥३४ । ४ सुसवुडो पहिं संवरहि इह जीवियं अणवक खमाणो। बोसटठकायो सुइचत्तदेहो। महागय जयई बन्लसिटठ ।।
कही १२४२। ५ पायाई बम बन्नमि ।
वही २५।१। ६ वही १२वा एष २५वा अध्ययन । ७ उत्तराध्ययनसून आत्माराम टीका १ ११२१-११२५ तक ।