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________________ १४२ र मानव पीर तथा उसीको सच्चा ब्राह्मण कहा गया है। जैसे कमल कीचड से उत्पन्न होकर बस पर ठहरता है और जल के द्वारा वृद्धि को प्राप्त करता हुआ भी जल से उपसिल नहीं होता है ठीक इसी प्रकार जो काममोगों से उत्पन्न और वृद्धि को प्राप्त करके भी उनमें उपलिप्त नही होता उसीको सच्चा बाह्मण कहा गया है। इस प्रकार मूल गुणो के द्वारा ब्राह्मणत्व का निरूपण किया गया । बब उत्तर गुणों से भी उसका वणन किया जा रहा है। लोलपता से रहित अर्थात् रसों में भूळ न रखनेवाला भिक्षावृत्ति से जोक्न-पात्रा चलानेवाला गृह और मठादि से रहित द्रव्यादि का परित्यागी और गृहस्यों से अधिक परिषय न रखनेवाला माचार सम्बन्धी इन आचरणीय गुणो से युक्त व्यक्ति को ही ब्राह्मण कहा गया है। केवल सिर मुडा लेने से कोई व्यक्ति श्रमण नहीं बन सकता बब तक उसमें श्रमणोचित गुण विद्यमान न हो और न ही कोई पुरुष मात्र कार अर्थात ३ भभूव स्व इत्यादि गायत्री मात्र के उच्चारण कर लेने मात्र से ब्राह्मण हो सकता है। अपितु ब्राह्मणोचित गुणों का धारण करना आवश्यक है । इसी प्रकार केबल बन में निवास कर लेने मात्र से मुनि और बल्कल आदि के पहन लेने से कोई तपस्वी भी नही हो सकता। तात्पर्य यह है कि ये सब बाहरी आडम्बर तो केवल पहचान के लिए ही है। इनसे काय सिद्धि का कोई सम्बन्ध नही। कार्य सिद्धि का सम्बन्ध तो अन्तरग साधनो से ही है। राग देष मादि से अलग होकर जिसके आत्मा म समभाव की परिणति हो रही हो वह श्रमण है। इसी प्रकार मन वचन और शरीर से ब्रह्मचय को धारण करनेवाला ब्राह्मण कहा जाता है। ठीक इसी प्रकार ज्ञान से मुनि होता है अर्थात जो तत्त्व विद्या में निष्णात हो वह मुनि है। इसी भांति तप का आचरण करनेवाला वापस है। इच्छा के निरोष को तप कहते हैं अर्थात् जिसने इच्छाओं का निरोध कर दिया है वह तपस्वी है। इस प्रकार देखा जाता है कि गुणों से हो पुरुष श्रमण ब्राह्मण मुनि और तपस्यो हो सकता है न कि बाहर के केवल वेषमात्र से। इस प्रकार इन धर्मों के आराधन से यह जीव स्नातक हो जाता है और कर्मों के बन्धन से सवथा मक्त हो जाता है। १ धम्मपद ४१८ उत्तराध्ययन २५।२६ । २ धम्मपद ४ १ उत्तराध्ययन २५।२७ । ३ पम्मपद ४४ उत्तराध्ययन २५।२८ । ४ धम्मपद २६४२६६२६८२७ ३९३ उत्तराध्ययन २५/३१ । ५ धम्मपद २६५ २६९ उत्तराध्ययन २५।३२ । जैनमत म स्नातक नाम केवली का है और बौर-मत में बुद्ध को स्नातक माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र आत्माराम टीका पृ ११३३ ।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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