________________
प्रतिपाति मनोविकालतुत १८१
बौवषम में पित्त का संयम जो कुशल या अकुशल धमों का सचय करता है उसे पित्त कहते हैं। चित्तको भगवान बुद्ध ने सबसे अधिक सूक्ष्म तत्व माना है। उनका कथन है कि मन सभी प्रवृत्तियो का अगुआ है मन उसका प्रधान है वे मन से ही उत्पन्न होती है । यदि कोई दूषित मन से वचन बोलता है या काम करता है तो दुःख उसका अनुसरण उसी प्रकार करता है जिस प्रकार कि चक्का-गाडी खीचनेवाले बैलो के पैर का । जिस प्रकार मन के ऊपर सयम रखना चाहिए उसी प्रकार सभी इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए। जो स्वच्छ मन से भाषण एव आचरण करता है सुख उसका उसी प्रकार अनुगमन करता है जिस प्रकार कभी साथ न छोडनेवाली छाया। धम्मपद में कहा गया ह कि वर से वर कभी शात नही होते अतएव द्रोह व वैर का सवषा परित्याग करके मत्री की भावना मन म रखकर शत्रु से भी अवर व्यवहार करना चाहिए । मन क सब प्रकार के दोष या मल को धो डालना चाहिए । ध्यान भावना का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए क्योकि उसके अभाव म मन में राग घुस जाता है । प्रमाद को त्यागकर राग देष और मोह को छोडकर अनासक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए । जन-शन में मन का सयम
डॉ सागरमल जैन का कथन है कि जन-दशन में मन मुक्ति के माग का प्रवेशवार है । वहाँ केवल समनस्क प्राणी ही इस मार्ग पर आगे बढ़ सकते है। अमनस्क प्रापियो को तो इस राजमाग पर चलने का अधिकार ही प्रास नहीं है। सम्यग्दष्टि केवल समनस्क प्राणियो को ही प्राप्त हो सकती है और वे ही अपनी साधना के द्वारा मोक्षमाग की ओर बढ़ने के अधिकारी हैं । सम्यग्दशन को प्राप्त करने के लिए तीवतम क्रोषादि आवेगो का मयमन आवश्यक है क्योकि मन के द्वारा ही बावेगों का संयमन सम्भव है। इसीलिए कहा गया ह कि सम्यग्दशन की प्राप्ति के लिए की जानवाली अन्य भेद की प्रक्रिया में यथाप्रवृत्तिकरण तब हाता है जब मन का योग होता है।'
१ मनो पुब्बङगमाषम्मा मनोसेटा मनोमया।
ततो न सुखमन्वेति छाया व अनपायिनी ॥
धम्मपद १ २ तथा जैन बोट तथा गीता के आचार-वशनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ पृ ४८१।। २ न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीष कुवाचन । धम्मपद ५। ३ जैन बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ पृ ४८२।