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१६५ र समान शरीर की विभूषा का त्याग
ब्रह्मचय म अनुराम रखनेवाले साध को शरीर की विभूषा का त्याग करना चाहिए । मत उसे उत्तम सस्कार करना शरीर का मण्डन करना केश आदि का संवारना छोड देना चाहिए। १ समावि पांचों प्रकार के कामगुणों का त्याग
ब्रह्मचय की रक्षा के लिए इस दसवें समाधिस्थान में ब्रह्मचारी को शब्द रूप गन्ध रस और स्पश इन पांच कामगुणो का सदा परित्याग करने के लिए कहा गया है क्योंकि वे सब ामगवेषी पुरुष के लिए तालपुट विष के समान है। इसलिए एकाग्र मनवाले साधु को समाधि की दढ़ता के लिए इन दुजय कामभोगों तथा शका के स्थानो को छोड देना चाहिए ।
इस प्रकार सम्यकतया काया से स्पश करने से सर्वथा मैथुन से निवृत्तिरूप चतुथ महावत का आराधन एव पालन होता है और देव दानव गन्धव यक्ष राक्षस एव किन्नर य सभी ब्रह्मचारी को नमस्कार करते हैं क्योकि वह दुष्कर ब्रह्मचय का पालन करता है। ५ अपरिग्रह महाव्रत
__धन धान्य भृत्य आदि जितन भी निर्जीव एव सजीव पदाथ है उन सबका मन वचन काय से निर्मोही होकर ममत्व का त्याग करना अपरिग्रह या अकिञ्चन महावत कहलाता है। अत साधु किसी खाद्य पदाथ का अशमात्र मी सग्रह न करे तथा चतुर्विध बाहार म से किसी आहार का भी स ग्रह करके रात्रि को न रख । वह सोने-चांदी आदि को ग्रहण करने की मन से भी इच्छा न करे। इस तरह सभी प्रकार के धन पा यादि का त्याग करके तृणमात्र का भी सग्रह न करना अपरिग्रह है । अपरि मह को ही वीतरागता कहा गया है क्योकि जब तक विषयों से विराग नहीं होगा तब
१ उत्तराध्ययन १६३९ पद्य तथा गद्य । २ वही १६३१ पद तथा गद्य । विसवालउडजहा।
वही १६३१३ गद्य । ३ सकटढाणाणि सव्वाणि वज्जेज्जा पणि हाणप। वही १६:१४ पद्य । ४ वही १६।१६ पद्य । ५ वही १९६३ तथा आगे उ २५१२७ ८४ १२।९ १४४४१ ४९
२१।२१ २५।२८ ३५।३ १९ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन
पृ २७८। ६ उत्तराध्ययन ६१६ तथा ३५।१३ ।