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मैनपर्व के सिद्धान्त जनवम का सिद्धान्त भी बौडधर्म की तरह एक प्राकृत भाषा अधमागधी में लिक्षित है और परम्परा के अनुसार इसका सम्पादन पांचवीं शताब्दी ईसवी के अन्त या छठी शताम्दी के बारम्भ के आसपास बलमी में देवर्षि की अध्यक्षता में हुमा । इस अपेक्षाकृत बाद की तिथि को देखते हुए कुछ लोग इस चैन-सिवान्त के मूक उपदेश के अनुसार होने में सन्देह करते हैं। लेकिन सचाई यह प्रतीत होती है कि देवर्षि ने उन ग्रन्थों को व्यवस्थित मात्र किया जो पहले से अस्तित्व में थे और तीसरी शताब्दी ई ५ से चले आ रहे थे। इस तिथि से पहले भी कुछ जैन-अन्क थे जिन्हें पर्व कहा जाता है लेकिन बाद में बे लम हो गये तथा इनका स्थान नये अन्य अगों ने ले लिया। इस प्रकार जैन-सिद्धान्त के वर्तमान रूप की प्रामाणिकता में सन्देह करने का कोई कारण नही है हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि इसमें यदा-कदा कोई परिवर्तन-परिवधन नही हुए ।
जैनधम ईश्वर की सृष्टि म विश्वास नहीं करता । इस बम के अनुसार मनुष्य स्वय अपने भाग्य का विषाता होता है। सासारिक एवं आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य अपने प्रत्येक कम के लिए उत्तरदायी है। उसके सारे सुख-दुख कम के ही कारण है। ससार में जीव जिन कर्मों से बधकर घूमता रहता है उत्तराध्ययनसूत्र म उनकी सख्या आठ बतलायी गयी है । इस ससार में जितने भी जीव है सभी अपने अपन कर्मों के द्वारा ससार भ्रमण करते हुए विभिन्न योनियों में जाते हैं। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना जीव को मुक्ति नहीं मिलती। अस मोक्ष की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कम-फल का नाश करे और इस जन्म म किसी प्रकार के कमभाष से गृहीत न हो।
स्याद्वार जैनधर्म-दशन का प्रधान सिद्धान्त है। स्यात् शब्द अस पातु के विधिलिङ के रूप का तिङन्त पद जैसा प्रतीत होता है। लेकिन यह शब्द अव्यय है को कथंचित् अथवा अमुक दृष्टि का प्रतीक है। इस प्रकार स्वाहाद का बर्ष सापेक्षवाव अपेक्षावाद बोर कवित्वाव ह जो मिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से वस्तु के तत्व का निरीक्षण करता है। जैन-पान में स्यावाद को भनेकान्तवाद भी कहते है क्योंकि स्यावाद से
१ समवायागसुत्त सूत्र ६ । २ स्टीवेन्सन एस हट मॉफ जैनिज्म पृ १६ । ३ उत्तराध्ययनसूत्र ३३॥२३॥ ४ जैनी जे भाउट लाइन्स बॉफ जैनिज्म पृ १३९१४ । ५ मेहता मोहनलाल जैनधर्म-वशन १ ३५८॥