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धार्मिक सिधान्तों से तुलना ९१ अभिषमकोश भाष्य म इन तीन रत्नों की तुलना क्रमश वैद्य भेषज्य एवं उपस्थापक से की है। इनका स्मरण स्वस्तिकारक है। अत नम रत्नत्रयाय कहकर इन्हें अक्सर नमस्कार भी किया जाता है । इससे भय दुख आदि दूर होते है । त्रिशरण-गमन बौद्ध सघ में प्रवेश की प्रथम औपचारिक आवश्यकता थी । प्रनया के प्रार्थी को सिर और दाढी मडाकर काषाय वस्त्र पहनकर उत्तरासग एक कन्ध म बठकर और हाथ जोडकर तीन बार यह कहना पडता था बुद्ध की शरण जाता हूँ बम्म की शरण जाना हूँ और सघ की शरण जाता है।
अब प्रश्न उठता है कि शरण का क्या अथ हो सकता है ? शरण का अथ दढ निष्ठा एव तदनुसार आचरण करना ह । भगवान बुद्ध न पूजा-पाठ का निषष किया था। उन्होन अपनी पजा तक को साथक न कहकर धम आचरण की ओर सबको प्ररित किया था। उन्होन यह भी कहा था कि मनुष्य भय के मार पर्वत बन उद्यान वृक्ष चत्य आदि को देवता मानकर उनकी शरण म जाते हैं। किन्तु य शरण मगलदायक नही य शरण उत्तम नही क्योकि इन शरणो मे जाकर सब दुखो से छटकारा नही मिलता। जो बुद्ध धम और सघ की शरण जाता ह और चार माय सत्यो की भावना करता है वही सब दु खो से मक्त होता है ।
१ अभिषमकोश भाष्य पृ ३८७ । २ देखिय रतनसुत्त ( सुत्तनिपात )। ३ विनयपिटक महावग्ग प २४
और बौद्धधम के विकास का इतिहास
४ महापरिनिम्बानसुत्त प १४४ । ५ बहु वे सरण यति पब्बतानि वनानि च ।
आराम रुक्खचेत्यानि मनुस्साभय तज्जिता ॥ नेत खो सरण खेमं नेत सरणमत्तम । नेत सरणमागम्म सब दक्खा पमञ्चति ॥
धम्मपद १८८ १८९॥
६ यो व बुद्ध च धम्म च सघ
सरण गतो।
एत खो सरण खेम एत सरणमुत्तम । एत सरणमागम्म सम्बदुक्खा पमुच्चति ।।
वही १९ -१९२।