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________________ १५ उन्होंने अपने स्वानभत ज्ञान को 'चतुरार्य सत्यों के रूप में व्यक्त किया दुख हुलसमुदय दुखनिरोध तथा दुखनिरोष-माग । दु लनिरोध के लिए जिन उपायों को धम्मपद में बतलाया गया है वे ही प्राय उत्तराध्ययन में भी हैं अन्तर इतना ही है कि जहाँ बोद्ध दशन नैरात्म्य पर जोर देता है वहाँ उत्तराध्ययन उपनिषदों की तरह आत्मा के सद्भाव पर । उपयक्त चार बोद्ध सत्यो की तुलना उत्तराध्ययनसूत्र की जैन तत्त्व योजना से निम्न रूप में की जा सकती है धम्मपद का दुख-तत्त्व उत्तराध्ययन के बन्धन-तब से दुख-हतु आस्रव से दुख निरोध मोक्ष से और दुखनिरोध- माग ( अष्टाडिगकमाग ) सवर और निर्जरा से तुलमीय हो सकते हैं । - आगे चलकर इसम शरण-गमन अहत तत्व कर्म एव निर्वाण का विवेचन ह | बुद्ध धम और सघ की शरण को त्रिशरण कहते हैं । बौद्धधम में इनको त्रिरत्न माना गया है और प्रत्येक बौद्ध के लिए इनकी अनुस्मृति आवश्यक कही गयी है । बद्ध की अनुस्मृति का अथ है उनके महत्व आदि गुणों का पुन पुन स्मरण । धम्मपद में बद्ध और उनकी स्मृति के ऊपर एक वग ही है। धम्म की अनुस्मृति को बद्ध की स्मृति से भी मह वपूण कहा गया है क्योकि धम के साक्षात्कार से ही बद्ध बद्ध बन थे । धम्मपद में धम्म पर भी एक अलग से बग ह । धर्म के प्रचार एव आध्यात्मिक साधना के अभ्यास के लिए बौद्ध अनुयायियों का सगठन ही सघ था। बद्ध सध को धम द्वारा सचालित और अपन से भी बडा मानते थे । सघ के गुणो का बार-बार स्मरण सधानु स्मृति है और धम्मपद में इसे भी उतना ही आवश्यक माना गया है । त्रिशरण की बात उत्तराध्ययन में तो नही है किन्तु चतुविध शरण का उल्लेख आवश्यक सूत्र म है । संघ के महत्व का उल्लेख नन्दी सूत्र में है । बौद्ध और जैन दोनों म आध्यात्मिक प्रगति के विभिन्न स्तरो की कल्पना है । सामान्यतया बौद्धधम में इनको क्रमश स्त्रोतापन्न सकृदागामी अनागामी एव अर्हत कहा जाता था । धम्मपद में इनका क्रमबद्ध उल्लेख तो नही है किन्तु महत तत्व का वर्णन है। इस ग्रन्थ के सातवें वग्ग का नाम अरहन्त वर्णन है । महत्व का तात्पर्य साधक चुका हो और वीतराग एव नैतिक जीवन का परम साध्य वग्ग है और इसकी प्रत्येक गाथा म अहतो का की उस अवस्था से है जिसमें तृष्णा राग-द्वेष की वृत्तियों का क्षय हो वह सभी सांसारिक मोह तथा बन्धनों से ऊपर हो । उत्तराध्ययन में भी अरिहन्त जीवन का प्राय इसी रूप मे वणन है और उसे माना गया है। जैन और बौद्ध दोनो धर्मो को कमसिद्धान्त समान रूप से स्वीकाय है । जगत् के स्रष्टा और नियामक किसी ईश्वर की कपना अस्वीकार कर दोनों धम जीव की गति कम के ही अधीन मानते हैं । परन्तु दोनों के कुछ मौलिक अन्तर भी थे । बौद्ध कर्म को किसी नित्य शाश्वतकर्ता का व्यापार नहीं मानते थे। इसी प्रकार जहाँ बोद्ध कम को मूलत मानसिक संस्कार के रूप में ग्रहण करते थे वहां जैन उसे पौद्गलिक
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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