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________________ पयी है उनके पीछे छिपी जैन-बाह्मण-सघष को कोई बनकही कहानी सामने लायी वा सकती है। धम्मपद और उत्तराध्ययनसूत्र का अध्ययन गीता से सम्बद्ध करके किया जाना चाहिए। क्योकि ये तीनों पुस्तक तीन षम व्यवस्थाओ-बौट जैन और ब्राह्मण षम का मुख भाष है। तीनो की अपनी एकजातीय सस्कति है । साथ ही तीनों के पीछे निजी भाषिक मिथक और बभिव्यक्ति उच्चरण है । तीनो के पीछे सोचती-बोलती रहनेवाली तीन परस्पर सवादी धम-जातियां भी है। तीनो का रक्त एक है लेकिन तीनो को एक-दूसरे की चुनौती रक्त पिपासा की सीमा सक उत्तजित करती है। भाषा का टकराव रीति रिवाजो का टकराव एक दूसरे का एक दूसरे में समा जाना एक दूसरे से अलग होना फिर एकाकार हो जाना मिल जुलकर जाति-चरित्र से सम्बन्धित अनेक रहस्य समेटे हुए है। इसीलिए गीता धम्मपद और उत्तराध्ययनसूत्र का अध्ययन तुलनात्मक और व्यतिरेकी सदी म खास महत्व रखता है। मुझे यह देखकर सुखद आश्चय हुआ है कि प्रतिभाशील उरुण अन्वेषक डॉ महेन्द्रनाथ सिंह ने बहुत उपयुक्त समय पर धम्मपद तथा उत्तराध्ययनसूत्र का सास्कतिक विश्लेषण प्रारम्भ किया ह । डॉ सिंह मुख्यत इतिहास के विद्वान् है लेकिन उन्होंने बडी दिलचस्पी के साथ तस्वमीमासा और पार्मिक सिद्धान्त जसे सूक्ष्म प्रश्नो पर भी गहराई से विचार किया है। उनकी अध्ययन प्रणाली एक शास्त्रगत अन्वेषक की है। वे डॉ एस अतकर डा वासुदेवशरण अग्रवाल डा अजयमित्र शास्त्री डॉ जे एन तिवारी डॉ सागरमल जन और डॉ सुदशनलाल जैन की परम्परा के विद्वान् है । इस परम्परा के विद्वानो की विशेषता यह होती है कि वे मुख्य विषय से सम्बन्धित सारी सामग्री एव सूचनामो को परिश्रमपूर्वक एकत्र करते हैं और उन्हें एक निश्चित क्रम मे उद्धृत करत हुए अज्ञात अश्रुतपूर्व को सामने कर देते है। गे महेन्द्रनाथ सिंह ने अपनी गुरु-परम्परा से काफी कुछ सीखा है और उनकी पुस्तक से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होने न केवल पूर्व अध्यताओं का पूरा उपयोग किया है कि धम्मपद तथा उत्तरा ध्ययनसूत्र के अध्ययन के साथ-साथ बौद्ध तथा जैन मलपन्यों का भी परिश्रमपूर्वक अध्ययन किया है। इस अध्ययन के निष्कष बहुत महत्वपूर्ण है। जो लोग बौद्ध और जैन-तत्वमीमासा और षम सिद्धान्तो से परिचित नहीं है वे लोग डॉ सिंह की पुस्तक से बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। सार-सकलन तथ्यो की प्रस्तुति व्याख्या विश्लेषण और अर्थापन सभी दृष्टियो से महेन्द्रजी ने एक पण्डित-पोथी लिखी है। मैं विश्वास करता है और आशान्वित हूँ कि में महेन्द्र नाथ सिंह मागे चलकर अपनी इस विद्या को श्रीमद्भगवद्गीता से भी सम्बर करेंगे और सस्कत पालि और
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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