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________________ - १६ - मानते थे । बम्मपद और उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययन से भी इन तथ्यों की पुष्टि होती है । समाधि और प्रज्ञा ये तीन धम्मपद में यह उक्ति प्राप्त होती है कि मागों में अष्टांगिक माग सवश्रेष्ठ है परन्तु सम्पण ग्रन्थ के अनुशीलन से यह भी स्पष्ट होता है कि शील ही दुःख विमुक्ति के मल साधन हैं तथा अष्टागिक माग इसी साधन त्रय का पलबित रूप है । उत्तराध्ययनसूत्र में मोक्ष के चार साधन कहे गये हैं दर्शन ज्ञान चारित्र और तप । जैन आचार्यों ने सम्यक चारित्र में ही तप का अन्तर्भाव कर परवर्ती साहित्य में त्रिविध साना - मार्गों का विधान किया । जैन-दशन म यह रत्नत्रय नाम से प्रसिद्ध हुआ । तुलनात्मक अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है कि उत्तराध्ययन के सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान धम्मपद के समाधि और प्रज्ञा स्कन्ध के समकक्ष है । शील स्कध उत्तराध्ययन के सम्यक चारित्र में सरलता से अन्तभत हो वस्तुत बौद्ध और जैनधम के आधार म मौलिक समानतायें हैं । बौद्धो के व्रतों से सहज ही तुलनीय है। अहिंसा के सम्बन्ध म दोनो म किंचित दृष्टिभद अवश्य था और तत्त्वमीमासा के मौलिक अन्तर के कारण दोनो की ध्यान-पद्धतियो म भी असमानताय थी परन्तु दोनो में सबसे महत्वपूर्ण भद यह था कि जहाँ जनधर्म काय-क्लेश और कठोर तप पर बल देता था बौद्धधर्म अतिवजना और मध्यम माग के पक्ष में था । धम्मपद और उत्तराध्ययन से इन तथ्यो की भी पुष्टि होती है । धम्मपद और उत्तराध्ययन दोनो में पुण्य-पाप की अवधारणाय प्राय समान है। दोनो में याज्ञिकी हिंसा तथा वर्ण भेद की आलोचना है । दोनो सदाचरण को ही जीवन म उच्चता नीता का प्रतिमान मानते हैं और ब्राह्मण की जन्मानुसारी नही अपितु कर्मानुसारी परिभाषा प्रस्तुत करते हैं । साथ ही दोनो म आदश भिक्षु यति के गुण प्राय समान शब्दो में वर्णित है | धम्मपद का जाता है । शील जैन दोनो ग्रन्थो में प्राप्त चित्त अप्रभाव कषाय तथा तृष्णा आदि मनोवैज्ञानिक तथ्यो का विवेचन है । साधारण रूप से जिसे जन-परम्परा जीव कहती है बौद्ध लोग उसीके लिए चित्त शब्द का प्रयोग करते है । उनके लिए चित्त कोई नित्य स्थायी स्वतन्त्र पदाथ नहीं है । चित्त की सत्ता तभी तक है जब तक इंद्रिय तथा प्राह्म विषयों के परस्पर घात प्रतिघात का अस्तित्व है । विषयों के परस्पर घात प्रतिघात का अन्त हो जाता है त्योंही शान्त हो जाता है । atara में चित्त मन और विज्ञान को प्राय माना गया है। जैन दृष्टिकोण से जिसके द्वारा मनन किया जाता है वह मन है । उत्तराध्ययन के अनुसार मन भी एक प्रकार का द्रव्य है जिसके द्वारा सुख-दुख की अनुभति होती है। दूसर शब्दो में इन्द्रियो और आत्मा के बीच की कही मन है । धम्मपद के बिसवग में चित ज्योही इन्द्रियो तथा चित्त भी समाप्त या एक ही अथ का
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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