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धार्मिक सिद्धान्तों से तुलना : १३
८ अपुनरावृत्त और शाइबत
यहाँ आने के बाद जीव पुन कभी भी ससार में नही आता है । अत अपुनरा वृत्त है तथा नित्य होने से शाश्वत भी है। तात्पय यह है कि मोक्ष दशा को प्राप्त हो जाने पर न तो कोई कम शेष रहता है और न किसी प्रकार के दुख का उपभोग करना पड़ता है ।
९ अव्याबाज
सब प्रकार की बाधाओ से रहित तथा अत्यन्त सुखरूप होने से निर्वाण को अव्याबाध भी कहा गया है । वात्पय यह है कि निजगुण का सुख एक अनुपम सुख होता
और सातावदनीय कम के क्षयोपशम से जो सुख उत्पन्न होता है वह अनित्य सादि सान्त होता है परन्तु इसके विपरीत जो आध्यात्मिक सुख ह वह अजन्य होने से नित्य अथवा अनन्त पदवाला है ।
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लोकोत्तमोत्तम
तीनो लोकों मे सर्वश्रेष्ठ होने से निर्वाण को लोकोत्तमोत्तम कहा गया है। मोक्षस्थान म प्राप्त हुआ जीव फिर इस ससार में आकर जन्म मरण की परम्परा को प्राप्त नही होता अर्थात मोक्षस्थान ध्रुव है । नित्य ह । जो लोग मुक्तात्मा का पुनरा गमन मानते हैं व भ्रान्त हैं। क्योकि जब तक यह आत्मा आश्रवो से हित नही होता तब तक मोक्ष की प्राप्ति दलभ ही नही किन्तु असम्भव है।
इस तरह यह निर्वाण की अवस्था रूप रहित अत्यन्त दखाभावरूप निरतिशय सुखरूप
जरा व्याषि एव भौतिक शरीर से शात क्षमकर शिवरूप घनरूप
१ अपुणागम गए
सत्वगुणसम्पन्नयाएण अपुणरावृति जणय ।
२ अणगारेण जीवे सारीर
माणसाण दुक्खाण छेयणभेयण-सजो गाईण वोच्छेय करे अव्वाबाह च सुह निव्वेतह ||
३ लोगत्तमुतम ठाण सिद्धिं गच्छसिनीरओ |
निरासवे सखवियाण कम्म
उवे ठाण विउलतम धुव ॥
उत्तराध्ययन २१।२४ तथा
वही २९।४५ ।
वही २९|४ |
वही ९१५८ तथा
वही २ । ५२ ।