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समानता मीर विभिन्नता : २२७
स्वर्ग-नरक का उल्लेल भी धम्मपद में देखने को मिलता है । भगवान् बुद्ध के अनुसार पाप-कम करनेवाले नरक में तथा सन्मार्ग पर चलनेवाले स्वर्ग को जाते है ।" दुहकम करनेवाला इस लोक तथा परलोक दोनों में दुखी होता है । अपने कर्मों की बुराई देखकर वह शोक करता है और नष्ट हो जाता है। लेकिन पुष्य-कर्म करनेवाला इस लोक तथा परलोक दोनों में प्रसन्न रहता है तथा अपने कर्मों की पवित्रता को देखकर वह सुखी रहता है ।
इस काल में शिल्पियों की अवस्था चलत थे । समाज की आर्थिक स्थिति भी पर था । कुटीरबन्धो में लगे हुए लोग भी अथवा नगर वणिक-पयों और जल-मार्गों के Treat मथुरा कौशाम्बी वैशाली आदि ऐसे ही नगर थे । सबको अपन स्थिति के अनुसार भी एक मापदण्ड था महाशाल श्रेष्ठि महाश्रेष्ठि अनुश्रेष्ठ और थे । राजा इनका बडा सम्मान करते थे
करत थ ।
अच्छी थी । उद्योग-धन्धे सुचारु रूप से अच्छी थी । वस्त्र उद्योग पर्याप्त उन्नति सुखी एव प्रसन्न थे । व्यावसायिक केन्द्र किनारे अवस्थित थे वाराणसी साकेत राजगृह चम्पा तक्षशिला कान्यकुब्ज कुसीनारा व्यवसाय की स्वतन्त्रता थी। समाज म आर्थिक जिसके अनुसार क्षत्रिय महाशाल ब्राह्मण उत्तर श्रेष्ठि-पदों से धनवान लोग विभषित और अनेक कार्यों में इनसे परामर्श लिया
इस प्रकार उपरोक्त विवेचन के आधार पर धम्मपद से सामाजिक रचना का जो चित्र प्राप्त होता है उसम वैदिक हिन्दू वणव्यवस्था के सैद्धान्तिक समथन नही है किन्तु व्यवहार में प्रचलित समाज के चार वर्णों भीतर की अनकानेक जातियों को स्वीकृति दी गयी है । वण भी किन्तु उनमें धीरे-धीर जन्मजात श्रेष्ठता एवं हीनता की जिसका कि पीछे तथागत को विशेष करना पड़ा और ही नीच ऊँच होता है जन्म से नहीं। एक अलग वर्ण के कोई उल्लेख तो नहीं है किन्तु अनेक पेशेवर और हीन जातियों के रूप में इनका उल्लेख मिलता है जिन्हें कम्मकर अथवा तच्छक कहा गया है । चाण्डाल पुक्कुस मोर निषाद जैसी अन्य हीन जातियां भी थी। इसके अतिरिक्त कुटुम्ब परिवार विवाह खान-पान
रूप में धम्मपद में शूद्रो का
पक्ष का तो कोई
और उन वर्णों के
कमप्रधान ही थे
भावना पर करती जा रही थी कहना पड़ा कि व्यक्ति कम से
१ धम्मपद गाथा सख्या १२६ ।
२ वही १५ ।
३ वही १६ ।
४ बुद्धिस्ट इण्डिया टी डब्ल्य रीज डेविडस पू ५७ ।