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धार्मिक सिद्धान्तों से तुलना । ११३
का ही भोग करता है अथवा दूसरों के द्वारा किये हुए शुभाशुभ का फल भी उसे मिळता है ? इस सन्दर्भ में दोनों दर्शनों के दृष्टिकोण पर भी विचार कर लेना आवश्यक है । बौद्ध-दृष्टिकोण के सम्बन्ध में आचाय नरेन्द्रदेव लिखते हैं कि सामान्य नियम यह है कि कम स्वकीय है जो कर्म करता है वही ( सन्तान प्रवाह की अपेक्षा से ) उसका फल भोगता है । किन्तु पालि निकाय में भी पुण्य परिणामना ( पत्तिवान ) है । वह यह भी मानता है कि मृत की सहायता हो सकती है । स्थविरवादी प्रेत और देवों को दक्षिणा देते हैं अर्थात् मिक्षओं को दिये हुए दान ( दक्षिणा ) से जो पुष्प सचित होता है उसको देते हैं। बौद्धो के अनसार हम अपने पुण्य में दूसरे को सम्मिलित कर सकते हैं पाप में नही। इस प्रकार बौद्ध विचारणा कुशल कर्मों के फल-सविभाग को स्वीकार करती है । जैन विचारणा के अनुसार प्राणी के शुभाशुभ कर्मों के प्रतिफल में कोई भागीदार नही बन सकता । जो व्यक्ति शुभाशुभ कर्म करता है वही उसका फल प्राप्त करता है । उत्तराध्ययनसूत्र म स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ससारी जीव स्व एव पर के 'लए जो साधारण कर्म करता है उस कर्म के फलभोग के समय बन्धु बान्धव (परिजन) हिस्सा नही लेते। इसी ग्रन्थ में प्राणी की अनाथता का निर्णय करते हुए यह बताया गया है कि न तो माता पिता और पुत्र-पौत्रावि ही प्राणी का हिताहित करने में समर्थ है । इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में कर्म-फल-संविभाग को
अस्वीकार किया गया है ।
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इस प्रकार बौद्ध विचारक न केवल कर्मों के विपाक में नियतता और अनियतसा को स्वीकार करते हैं वरन् दोनो की विस्तत व्याख्या भी करते हैं । वे यह भी बताते हैं कि कौन कर्म नियत विपाकी होगा। प्रथमत वे कर्म जो केवल कृत नहीं किन्तु
१ बौद्धधर्म-दर्शन पृ २७७ तथा जैन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ पृ ३९६ ।
२ कत्तारमेव बणुजाइकम्म ॥
कम्मस्सते तस्स उबेय-काले
नबन्धवा बन्धवय उवेन्ति ॥
३ त मे तिगिच्छ कुव्यन्ति चाउप्पाय जहाहिय ॥
नय दुक्ला विमोएड एसामज्झ अगाहया ||
उत्तराध्ययन १३।२३ ।
वही ४|४|
बही २ ।२३ - ३ |