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पानिक सिवानों से तुलना ८१
है वीर्य है स्मृति समाधि और प्रशा है मैं स्वय धर्म का साक्षात्कार कर्सगा। सिद्धार्थ बोधि के लिए कृतसंकल्प हो अखत्य-मूल में पर्यकबद्ध हुए और यह प्रतिज्ञा की कि जब तक वे कृतकृत्य नहीं होते इसी बासन में बैठे रहेंगे। इस प्रकार रात्रि के प्रथम याम में उनको पूबजमों का ज्ञान हुआ दूसरे याम में विव्य चक्ष की प्राप्ति हुई और अन्तिम याम मे द्वादशाग प्रतीत्यसमुत्पाद का साक्षात्कार कर उन्हें अनभव हुआ कि उनका बार बार जन्म लेना समाप्त हो गया ब्रह्मचयवास पूरा हो गया और यह उनका अन्तिम जम है । आस्रवों का क्षय हो जाने से अब उन्हें इस लोक में पुन नहीं माना है। यह उनका बद्धत्व है । उस दिन से व बद्ध कहलाने लग । ज्ञान प्राप्ति के अवसर पर भगवान ने जो प्रीतिवचन कहे उनका वणन धम्मपद में इस प्रकार है- बिना रुके अनेक जमों तक ससार में दौड़ता रहा। (इस कायारूपी) गृह को बनानेवाले ( = तृष्णा ) को खोजत पुन पुन दुखमय जम में पडता रहा । हे गृहकारक (तृष्ण ) मने तुझे देख लिया अब फिर त घर नही बना सकेगा। तेरी सभी कड़ियाँ भग्न हो गयी गृह का शिखर गिर गया। चित्त सस्काररहित हो गया। महत्व (तृष्णा-भय ) प्राप्त हो गया।
उपयक्त विद्यता ही बद्ध की सम्बोधि पी परन्तु कालान्तर में बुद्धपद के विकास से विद्यता के आधार पर ही बद्ध के अय अनेक विशिष्ट गुणो-चल वैशारख आदि और सवज्ञता-की कपना की गयी। प्रारम्भ में बद्ध अपने और अन्य महतों में भेद नही मानते थे। परन्तु बद्ध पद विशिष्ट हो जाने की स्थिति में अत्यन्त विरल माना गया अत बद्ध और सामान्य अहत् की उपलब्धि में भेद किया गया। इसी क्रम म तीन प्रकार के मुक्त पदों की कपना की गयी महत प्रत्येक बद्ध और सम्यक सम्बद्ध । बद्ध के अतिरिक्त और उनसे पूर्व के आय मानुषी बद्धों की कल्पना भी विकसित हुई । बद्ध शब्द का प्रयोग पालि निकायों में अनेक बार हुआ है। वीपनिकाय के महापदानसुत और मजिसमनिकाय के अच्छरियम्भुतषम्म सुत्त ( ३३३३३) से अनेक सुत्तों म इस प्रकार के शब्द दृष्टिगोचर होते है। प्राचीन पालि-साहित्य में सात बद्धों के नाम मिलते है यषा-विपस्सी सिखी वेस्सभ ककुसन्ध कोमागमम १ अनेक जाति ससार सपाविस्स अनिम्बिस
गहकारकं गवे सन्तो दुक्खा जाति पुनपुन । महकारक दिोसि पुनगेह म काहसि । सम्बाते फासुकाभग्गा गहकट विसखित । विसबारगत पित्त तहान सयमन्मणा ॥
पम्मपद १५३ १५४ तथा दीपनिकाय प्रथम भाग पृ ७३ ।
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