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________________ धम्मपद में प्रतिपादित मीमांसा उस पदार्थ की वस्तु सत्ता हो नहीं है जो प्रोत्यसम पन नही है । इसलिए पार्थनिकक्षत्र में यदि कोई बुद्ध की देन को एक शब्द में पूछना चाहे तो नि सन्देह यह कहा जा सकता है कि प्रतीत्यसमत्पाद का सिद्धान्त ही भगवान् बुद्ध की विशेषता है। कार्यकारण का सिद्धान्त तो बुद्ध से पूर्व भी अय दाशनिक-सम्प्रदायों में ज्ञात पा किन्तु वह सभी वस्तुओ पर लाग नही था। ऐसे अनेक तत्त्व अछते रह जाते थे जिस पर यह नियम लाग न होता था जसे-आत्मा प्रकृति ईश्वर बाकाश काल दिए आदि । बद्ध ने सबप्रथम इस सिद्धान्त का गौरव प्रदान किया उसे सब पदार्थों पर लाम किया और उसे सत्ता का पर्यायवाची बनाया। यह बहुत बडी बात थी। इसने दार्शनिक जगत् मे हलचल पैदा की और दार्शनिक-विचारों के विकास की अनन्त सम्भावनाएं उमत कीं। यही कारण है कि बौख-दशन गतिशीलता क्रियाशीलता और प्रगतिशीलता का पर्यायवाची बन सका। बौद्ध-शन आग चलकर वैभाषिक सौत्रान्तिक विज्ञानवाद (योगाचार) और शूयवाद (माध्यमिक ) इन चार वाशनिक सम्प्रदायों में विकसित हुमा किन्तु ममी का आधारभत सिदा त प्रतीत्यसमत्पाद ही था। प्रतीत्यसमत्पाद की भिन्न-भिन्न व्याख्या करके ही उन्होने अपने-अपने दशन की नीव रखी। प्रतीत्यसमपाद की देशना भगवान बुद्ध ने की थी अत सभी बीड-दार्शनिक सम्प्रदाय-प्रवर्तक आचार्यों ने कहा कि जसी उन्होंने प्रतीत्यसमत्पाद की व्याख्या की वही बुध का असली मन्तव्य पा और वे ही उनके विचारों के वास्तविक उत्तराधिकारी तथा उनके सच्चे बनुयायी थे। इसी एक प्रतीत्यसमपाद की व्याख्या के माषार पर एक ओर स्थविरवादी वैभाषिक और सौत्रान्तिक आदि वस्तुबाद की स्थापना करते है तो दूसरी ओर विज्ञानवादीयोगाचार विज्ञानवाद की और शून्यवादी-माध्यमिक अपने शून्यवाद की। बौदों का सर्वप्रसिद्ध मणिकवाद का सिद्धान्त भी इसी प्रतीस्थसमसाद की सूक्ष्म व्याख्या की देन है। कहने का आशय यह है कि प्रतीत्यसमत्पाद एक ऐसा व्यापक और वैज्ञा निक सिद्धान्त था जिसने ज्ञान के विकास में अपूर्व योगदान किया। प्रतीत्यसमत्पाद का अब है हेतु-प्रत्ययों से उत्पाद । प्रत्येक वस्तु हेतु-प्रत्ययों से उत्पन्न (प्रतीत्यसमत्पन्न) है। वो हेतु-प्रत्ययों से उत्पन्न नहीं वह वस्तु ही नहीं अपितु अवस्तु और काल्पनिक है। इसी दृष्टि से भात्मा शिवर काल मावि बोडों द्वारा कल्पित नित्य पदाथ अवस्तु सत् कल्पित एव प्रान्त सिब हो जाते है। इस तरह इस सिदान्त से शाश्वतवाद का निषेध हो पाता है। फिर भी हेतु-फल की श्रृंखला बराबर जन्म-जन्मान्तरपर्यन्त अविभिन्न रूप से पलती रही है और यह तब तक - १ दीघनिकाय द्वितीय भाग ।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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