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बोर तथा मानव
या लोक-कल्याण होता है। भगवद्गीता में यही निष्काम कमयोग कहा गया व्यक्तित्व के विकास की इससे ऊची अवस्था नही होती । एसे व्यक्ति के लौकिक स्कन्ध जब निरुद्ध हो जाते है अर्थात् जब वह मर जाता है तो पुन उन स्कन्ध उत्पाद नहीं होता। एसे व्यक्ति के नाम और रूप धर्मों की धारा सवषा समा। जाती है । इसे ही निरुपषिशेष निर्वाण की अवस्था कहत है। जैन-दर्शन में मोक्ष का स्वरूप
जन-तत्त्व भीमासा के अनुसार सबर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरो जाने पर और निजरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का भय हो जाने पर आत्म जो निष्कम शुद्धावस्था होती है वही मोक्ष ह । मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपार ह । मोक्ष को जीवन का अन्तिम लक्ष्य मानन के कारण जैन आचार्यों ने मोक्ष मोक्ष माग दोनों पर विस्तार से विचार किया ह । उत्तराध्ययन भी अन्य भारतीय घा ग्रन्थो को तरह जीवो को मुक्ति की ओर अग्रसर करना अपना चरम लक्ष्य समझत
मोम के लिए निर्वाण शब्द का प्रयोग जैन आचार्यों ने भी किया निर्वाण का शाब्दिक अथ है-नि शेषण वान गमन निर्वाणम अर्थात् सम्पूण र गमन निर्वाण है । निर्वाण के बाद जीव का संसार म पुनरागमन नही होता । यहाँ पर निर्वाण का अथ है कमजय सासारिक अवस्थाओ का सदैव के लिए स हो जाना । बौद्ध-दशन का भी मूल लक्ष्य जीवों को मुक्ति की ओर ले जाना जैन मनीषियों ने मोक्ष के स्वरूप का प्रतिपादन करने के साथ अन्य भारतीय दश मान्य मोक्ष के स्वरूप की समीक्षा भी की है और तार्किक दृष्टि से उपयुक्त जैन-परि को प्रतिस्थापित किया है । उत्तराध्ययनसूत्र म मक्ति के अथ को डॉ सुदशनलार ने अपनी पुस्तक म विस्तृत रूप स प्रस्तुत किया है जिसे उसके स्वरूप के विष विशेष जानकारी प्राप्त होती है । वे शब्द निम्नलिखित है
१ जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दशनो का तुलनात्मक अध्ययन मा
११। २ उत्तराष्ययन २३७१-७३ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शन
तुलनात्मक अध्ययन भाग १ प ४२ । ३ नायए परिनिन्बुए
उत्तराध्ययनसूत्र ३६॥ मत्यि अमोक्खस्स निव्वाण
वही २८३ । ४ उत्तराध्ययनसूत्र एक परिशीलन ३७५-३७८ ।