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धार्मिक सिद्धान्तों से तुलना । ९९
केवल विशिष्ट मार्ग द्वारा प्राप्त होता है अत वह जरा मरण धर्मवाला नहीं है इस लिए वह नित्य भी है । उसकी पवकोटि भी नही है अत वह अनादि अन्तरहित एव अप्रभव है । रूप-स्वभाव का न होने से वह अरूप तथा सवप्रपचो से रहित होने के कारण निष्प्रपच कहलाता है । कपना शब्द तक का विषय न होने से अतक्य ग भीर एव दुजय कहलाता है । तृष्णा से निर्गत होने के कारण उसे निर्वाण कहते हैं ।
इस प्रकार विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि निर्वाण परमार्थत स्वभावभूत एक धम है। न तो वह सांख्यो की प्रकृति या बौद्धेतर दार्शनिकों की आत्मा की भाँति नित्य व्यापक एव सत्तावान् कोई द्रव्य ह न ही शय विषाण की तरह वह सर्वथा अलीक है। न तो वह प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्मों की तरह संस्कृत घम है और न प्रतिमात्र है । वह एक परमाथ धर्म है जिसका साक्षात्कार एव प्राप्ति होती है किन्तु उसका भाव या अभाव के रूप में निवचन नही किया जा सकता । अत उसे भावत्वेन एव अभावत्वेन अनिवचनीय ही कहा जा सकता है ।
भगवान् बद्ध की सारी देशना का एकमात्र रस निर्वाण है । उनके धम का आदि और अन्त सब कुछ निर्वाण है। निर्वाण दुख और उसके कारणो की निवृत्ति है । यह सवश्रेष्ठ अवस्था एव परमपद है । इसकी प्राप्ति के बाद कुछ प्राप्त करना शेष नही रहता । यह परम शान्ति है । इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर भी यदि व्यक्ति जीवित है तो वह सोपविशेष निर्वाण या जीवमुक्त की अवस्था इस अवस्था में वह जो कुछ करता है वही पण्य है वही कुशल है फल नही भोगना पडता क्योंकि इन कर्मों के पीछे राग द्वेष मोह क्लेश नहीं होते । य कम निराभोग कम कहलाते है । इनके द्वारा केवल लोक-सग्रह
१ निब्बान योगक्खम अनुत्तर । पारमेस्सत्तिमच्चुषेय्य सुदुत्तर ।
नत्थिसन्ति परं सुख ।
निब्बान परम सुख 1
येयन्ति अच्युत ठान यत्य गन्त्वा न सोचते । सन्तिमग्गमेवग्रहय निब्बान सुगतेन देसित । यहि झानन्च पन्ना व से निशान सन्तिके ।
तथा-
धम्मपद २३ ।
वही ८६ ।
वही २२ ।
वही २३२४ ।
वही २२५ ।
वही २८५ । बही ३७२ ।
arafters प्रथम भाग १ १२ द्वितीय भाग पू अभिषम्मत्थसगही द्वितीय भाग पु ७२८ तथा १
कहलाती है। किन्तु इसका उसे तृष्णा आदि कोई
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