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________________ समानता मारा : ११ उल्लेख है जिन्हें कम्पकर अथवा बकस कहा गया है और जिन्हें शून-वर्ण का ही समझा जाता है। वस्तुत विभिन्न शिल्पगत कार्यों को करनेवाले भनेक लोग शूद्र के हो अन्तर्गत ग्रहण किये गये थे। हबीड कुल्हाणी तक्षणी आदि बनानेवाले लोहार और बढ़ई इसी वग के सदस्य थे। ऐसे ही तकनीकी काय करनेवालों का भिन्न-भिन्न समूह था जो अपने पारम्परिक पेशे को अपनाते थे। ऐसी अनेक शूद्र जातियां थी जो अपने पेशे के कारण विख्यात थी । बुनकर बढ़ई (उच्चक) लोहार ( कम्मार) दन्तकार कुम्मकार (कुम्हार ) आदि विभिन्न शूद्र-वर्ग थे। वर्णव्यवस्था के समान ही बुद्धकालीन भारतीय समाज में पासप्रपा भी प्रचलित थी। बुद्ध ने भी दास मोक्ष पर जोर दिया और दास-दासी प्रतिग्रहण को अनुचित बतलाया । बौखसघ में सम्मिलित हो जाम पर दास-दासी मुक्त हो जाते थे। किन्तु इसके अतिरिक्त दास-दासियो को अपन घरो में नौकरों और सेवकों की तरह रखनेवाले धनी लोगो के मन पर भी बख के उपदेशों का प्रभाव अवश्य पडा होगा। अनेक दास-दासी संघ के सदस्य होकर और बुद्ध तथा बौद्ध भिक्षयों की सेवा करके दासभाव से मुक्त हो जान का प्रयत्न करते थे और कभी-कभी बुद्ध के उपदेशों को सुनकर अपन दुगणों से मुक्त हो जाते थे। वत्सराज उदयन की रानी सामावती की खज्जुबरा नामक दासी रानी के लिए फल खरीदते समय कुछ सिक्के चरा लिया करती थो किन्तु बुद्ध का उपदेश सुनकर उसन चोरी करना छोड दिया और अपनी स्वामिनी को भी बुद्ध के उपदेश सुनने के लिए उत्साहित किया। रानी भी उससे प्रसन्न होकर उसे अपनी शिक्षिका और माता समान मानने लगी। विवरणी नामक एक दूसरी दासी अपनी स्वामिनी की आज्ञा से भिक्षु सघ को रोज भोजन देने के कारण स्वर्ग में उत्पन्न हुई। घम्मपद म पारिवारिक जीवन का क्रमबद्ध विवरण तो दृष्टिगोचर नहीं होता है फिर भी उस समय समाज वर्णाश्रम के अतिरिक्त अनेक परिवारो म विभक्त था। इस बात की जानकारी परोक्ष रूप से अवश्य दिखायी पडती है। ये परिवार छोटे-बडे सभी प्रकार के होते थे। सामान्य रूप से एक परिवार म माता पिता भाई-बन्धु रहा करते थे। नारी अपने कई रूपों म हमारे सामने आती है । जैसे-माता पनी बहन . देखिए चाननारी भार स्लेवरी इन एश्येण्ट इण्डिया ४५। २ धम्मपद अटठकथा बुद्धघोष सम्पादित एच सी नामन और एल एस. तैलग जिल्द १ पृ २२। ३ महावस सम्पादित डब्ल्य गायगर १ २१४।। ४ माता पिता कपिरा बन्नेवापि च नातका । धम्मपद गाथा-सख्या ४३ ।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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