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१४ रवानव परिवाचार के गुणों से सयुक्त है जो सर्वोत्तम सयम का पालन करता है जिसने समस्त मासबो को राक दिया है जिसने कर्मों का नाश कर दिया है वह विपुल उत्तम और ध्रुवगति मोक्ष को पाता है। ब्राह्मणों की जन्मजात वर्णव्यवस्था को अस्वीकार करते हुए उन्होंने कम के आधार पर उसकी व्याख्या की। उनका स्पष्ट विचार था कि कम से ही कोई ब्राह्मण होता है कर्म से ही भत्रिय होता है कम से ही वैश्य होता है और कम से ही मनुष्य शूद्र भी होता है। निर्वाण-प्राप्ति के लिए यह जरूरी है कि मनुष्य अपनी निम्न प्रवृत्तियों का दमन करे। उन्होने सम्यक ज्ञान सम्यक चारित्र एव सम्यक दशन को ही मोक्ष का कारण माना है।
बौद्ध एव जैन-पन्यो म उल्लिखित साक्ष्यो से पता चलता है कि लगभग ६ ई पू में पाश्वनाथ द्वारा विस षम का प्रचार-काय प्रारम्भ किया गया था उसे महावीर स्वामी ने पूरे बिहार प्रदेश में प्रचार-काय द्वारा एक लोकप्रिय धम बना दिया । धीरे धीरे समस्त उत्तर भारत एव बगाल में भी इसकी लोकप्रियता बढ गयी और महावीर के पश्चात् तो समस्त देश में यह षम अत्यन्त लोकप्रिय हो गया । जैनधर्म और बौद्धधम मे समानता और विभिन्नता
भारतीय संस्कृति अनेक प्रकार के विचारो का विकसित रूप है । य विचार अनादिकाल से अनेक धाराओ में बहते चले आ रहे है। इन्हें मुख्य रूप से दो भागो में विभक्त किया जा सकता है--एक वैदिक-परम्परा तथा दूसरी श्रमण-परम्परा । धमण-परम्परा की भनेक शाखाए रही ह किन्तु वर्तमान में केवल दो शाखाए ही दष्टि गोचर होती है जैन परम्परा तथा बौद्ध-परम्परा । ये दोनो हो परम्पराएं अ य परम्परामो की भांति धर्म एव दशन के रूप में विकसित हुई है।
इस प्रकार बौद्ध-दशन एव जैन-दशन दोनो श्रमण-परम्पराओ की दो पपक-पृषक् विचारधाराए है। स्वाभाविक रूप से इनमे कुछ दृष्टियों से साम्य और कुछ दृष्टियो से वैषम्य है । साम्य इस रूप में है कि ये दोनों दशन न तो वेद को प्रमाण मानत है और न ही ईश्वर को जगत का कर्ता । ये कम सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। ससार म सत्व (जोब ) अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण हो एक गति से दूसरी गति म जन्म एव मरण को प्राप्त करता हुआ नाना दुखों को भोगता रहता है। ससार म जो भी विचित्रता ह वह प्राणियो के कर्मों के फलस्वरूप ही है। सव इन कर्मों से मुक्त हो जाता है तो
१ उत्तराध्ययनसूत्र २ ॥५२ । २ वही २५।३३। ३ तस्वार्थसूत्र १०१।