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२२४ । बौद्ध तथा अनधर्म
बडी दक्षता से बाण बनाते थे । धम्मपद' म की प्रशंसा की गयी है । इस ग्रन्थ म जग प्राप्त होता है ।
उसुकार द्वारा बिल्कुल सीधा तीर बनाने लगकर लोहे के नष्ट होने का उल्लेख भी
सुवण सुवण्ण चाँदी = रुपिय मणि = मणि विल्लोर = बेलर फलिक स्फटिक आदि धातुए एव रत्न मूल्यवान समझ जाते थे । इनका प्रयोग अलकार और बहुमूल्य पात्रों के निर्माण में होता था । दक्ष सुवर्णकार और उसका अन्तवासी शुद्ध मोर मच्छी तरह से साफ किये गये सोने से ही किसी वस्तु का निर्माण कर अपनी योग्यता प्रदर्शित करते थे । धम्मपद की एक उपमा से ज्ञात होता है कि कम्मार = सुवर्णकार बारी बारी से चांदी के मल को साफ करता है । यह सफाई सम्भवत किसी अम्ल की सहायता से होती थी । वस्तु विनिमय के साथ साथ उस समय सिक्कों का लेन-देन भी चलता था । उस समय के प्रमुख सिक्के कार्षापण ( रुपैया ) या कहापण का उल्लेख धम्मपद में प्राप्त होता है। किन्तु उसका मूल्यमान क्या था यह निश्चित नही हो पाता । धम्मपद का जो उद्धरण ऊपर दिया जा चुका है उसको अट्ठकथा के एक कहापण बीस मासे का होता था । किन्तु बुद्धघोष की यह टीका बुद्ध के लगभग एक हजार वर्षों बाद गुप्तकाल में लिखी गयी थी । बुद्धघोष का यह कि कहापण चांदी का सिक्का होता था ।
अनुसार
समय से
कथन है
बौद्धम में गुरुकुलों के समान ही गुरु शिष्य परम्परा के निर्वाह की पूण चेष्टा की गयी है । भगवान् बुद्ध ने भिक्षुओ को उपदेश दिया कि वे अपने गुरुओं तथा गुरुतुल्य
१ उज करोति मेघावी उसुकारो व तेजन ।
धम्मपद गाथा सख्या ३३ ।
२ अयसा व मल समुष्ठित तदुठाय तमेव खादति ।
वही गाया-सख्या २४ ।
३ अनुपुब्बेन मेघावी थाक थोक खणे खण । कम्मारो रजतस्सेव नियमे मल मसनो |
वही गाया-सख्या २३९ ।
४ वही गाथा - सख्या १८६ ।
५ धम्मपद अटठकथा बुद्धघोष सम्पादित एच सी नामन और एल एस तैलग जिल्द २ पृ २७ ।
६ वही पू २७ साथ में देखिए बुद्धकालीन भारतीय भगोल उपाध्याय भरतसिंह ५५१ |