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________________ १८ बरतमा नपर्म तथा प्रत्येक प्राणी को धम का ही आचरण स्वीकार करने के लिए कहा क्योकि धम का आचरण अति दकर है। इस प्रकार हम देखते हैं कि षम का सम्बष किसी "पूजा आराधना बलि अथवा आड बर से नही ह अपितु वसुधैव कुटम्बकम की भावना से ह जिसमें सभी प्राणियो के कयाण का असीम हित समाहित है। महावीर की दृष्टि में धर्म का उद्देश्य है सुकम करना जिससे सुख मिलता ह जब कि धम से विमुख होने पर कुकर्म की प्रवृत्ति उपजती ह जा द खदायक होती है । तभी तो उन्होन कहा ह कि जो मनुष्य पाप करता है वह घार नरक म जाता ह और जो आय धम का आचरण करनवाला ह वह दिव्य गति म जाता ह। धम से सुख और अधर्म से दुख मिलता है । अत मनुष्य को भली प्रकार समझकर इस वास्तविकता को परखना चाहिए । वसे तो मनुष्य इस लोक म घम को आराधना के लिए आया ह जो सदव उसकी रक्षा करता ह । धम के अतिरिक्त अय कोई यहा पर रक्षक नही है । महावीर ने घम की इस महत्ता को परखकर स्पष्ट कहा था कि धम प्रचार के पवित्रतम अनुष्ठान म यथाशक्ति योग देकर आत्मोद्धार एव परोद्धार को। जन जन के कयाण हेतु जहाँ धम अपक्षित ह वही स्वय के लिए भी इसकी उपयोगिता अनूठी है । महावीर न आम-सयम हतु भी धम की महत्ता का प्रतिपादन किया है । मनरूप घोडा इस जीवात्मा को जिधर चाहे ले जाता है ऊंची-नीची जिस गति म चाह अकेल देता है। इसलिए प्रयेक मुमुक्षु पुरुष को चाहिए कि अपन मन को सुधार ले उसे समापिर लान का प्रयत्न करे। सरलता से ही आमा की शुद्धि होती है और शुद्ध आ मा म ही प्रम स्थिर रहता ह। अथ में अय उपमाओ द्वारा भी धम उत्तराध्ययन १८३३३ । १ धम्म घर सुदच्चर । २ पडन्ति नरए घोरे जे नरापावकारिणो । दिग्व च गइ गच्छत्ति चरित्ता धम्ममारिय ।। वही १८।२५ । ३ एक्को हु मो नरदेव । ताण न वि जई अन्नमि हह किंचि ।। वही १४।४ । ४ मनो साहस्सिओमीमो दस्सोपरिधावई । त सम्म तु निगिण्हामि धम्म सिक्खाइकन्थग । ५ सोही उज्जुयभूयस्स-ग॥ धम्मो सुद्धस्स चिटठई ॥ वही २३१५८॥ वही २३१५८ । वही ३।१२।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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