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योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश
अपने दंतशूल को ऊंचा उठा कर आकाश से गिरते हुए प्रभ को दांत की नोक पर झेल लिया । दांत की नोक पर पड़ने से भगवान का वजमय कठोर शरीर छाती से टकराया, जिसके कारण चिनगारियां उत्पन्न हई। फिर भी बेचारा हाथी भगवान का बाल भी बांका न कर सका । फिर उस देव ने वैरिणी के समान हथिनी बनाई, जिसने अपनी सूड और दांत की पूरी ताकत लगा कर भगवान् के शरीर को भेदन करने का प्रयत्न किया और उस पर विषला जल छीटने लगी। मगर हथिनी का प्रयोग भी मिट्टी में मिल गया। फिर उस अधम देव ने भयंकर पिशाच का रूप बनाया, जिसकी दाढ़े मगरमच्छ के समान उत्कट थी। उसका मुख अनेक ज्वालाओं से युक्त अग्निकुंड के समान भयानक चौड़ा, खोखल के समान खुला था । उसकी भुजाएं यमराज के महल के तोरण स्तंभ के समान लम्बी थीं। उसकी जाघे ताड़वृक्ष के समान ऊँची व लम्बी थीं । वह चमडं के वस्त्र पहने व कटार धारण किए हुए अत्यन्त अटहास करता हुआ, फन्कार करता हुआ, कभी किलकारियां करता हुआ प्रभु को डराने लगा। उसने भगवान् पर अनेकों
फते ढहाई । मगर तेल समाप्त हो जाने पर बुझे दीपक की तरह वह पिशाच आगबबूला हो कर प्रभु के मामने हतप्रभ हो गया। नत्र क्रोध से उम निर्दयदेव ने एकदम सिंह का रूप बनाया और दहाड़ता हुआ, पूछ फटकारता हुआ, पृथ्वी को मानो फाड़ता हुआ, आकाश और पृथ्वी को अपने ऋ र निनाद से गूंजाता हुआ भगवान् पर टूट पड़ा। अपनी वचसम दाढ़ों व शल के समान नखों से वह भगवान पर लगातार आक्रमण करने लगा। दावानल से जले वृक्ष के समान उसे इसमे निष्फलता मिलने पर दुष्ट देव ने सिद्धार्थ राजा और त्रिशलादेवी का रूप बना कर प्रभु से कहा- "पुत्र ! तू ऐसा अनिदुष्कर तप क्यों कर रहा है ? तू यह दीक्षा छोड़ दे, हमारी प्रार्थना को मत ठुकरा । वृद्धावस्था में नदीवर्द्धन ने हमारा त्याग कर दिया है और हम निराधार हो गये हैं । तू हमारी रक्षा कर।" यों कहते हुए वे दोनों दीन स्वर से विलाप करने लगे। उनके ऐसे विलापों से भी प्रभु का हृदय आसक्ति में क्षब्ध नहीं हुआ । अतः प्रभु जहाँ ध्यानस्थ थे, उनके पास ही दुष्ट देव ने सेना का पड़ाव डाला । वहां रसोइये को चूल्हा बनाने के लिए पत्थर नहीं मिला, तो ध्यानस्थ प्रभु के दोनों पैरों को चूल्हा बना कर उस पर हंडिया रखी। नीचे आग जलाई । वह
सी प्रतीत हो रही थी. मानो पर्वत की तलहटी में दावानल प्रगट हआ हो। आग की प्रचंड ज्वालाओं के अत्यधिक जल जाने पर भी प्रभु के शरीर की कान्ति फीकी न हुई, बल्कि तप्त सोने के समान अधिकाधिक बढ़ती ही गई । तब उस अधम देव ने जगली भीलों की बस्ती बनाई, जहां भील लोग जोर-जोर से चिल्लाते थे । भीलों ने प्रभु के गले, कानों, बाहों और जांघों में क्षुद्र पक्षियों के पीजरे लटका दिये। जिममे उन पक्षियों ने चोंच और नख मार-मार कर प्रभु का शरीर छिद्रमय बना डाला। वह ऐसा लगता था, मानो अनेक छदों वाला कोई पींजरा हो। देव के लिए यह प्रयोग भी पक्के पत्ते के समान निसार सिद्ध हुआ। तब उसने संवर्तक नामक महान अंघड़ चलाया, जिससे विशाल वृक्ष तिनके के समान आकाश में उरते और फिर नीचे गिरते-से प्रतीत होने लगे। प्रत्येक दिशा में कंकड़-पत्थर धूल के समान उड़ने लगे । धौंकनी की तरह हवा भर कर भगवान को वह आकाश में उछाल-उछाल कर नीचे धरती पर फेंकने लगा । परन्तु नस महावायु से भी देव का मनोरथ सिद्ध न हुआ, तब उस देव-कुलकलंक ने वायुवर्तुल चलाया । बड़े बड़े पर्वतों को हिला देने वाले उस चक्करदार अंधड़ ने प्रभु को भी, चाक पर चढ़ाये हुए मिट्टी के पिंड के समान घमाया । परन्तु समुद्र के अंदर जल के समान उस चक्करदार अंधड़ के चलाने पर भी प्रभु अपने ध्यान से टस-से-मस नहीं हुए। तब देव सोचने लगा-'ओहो ! ववमय मनोबल वाले इस पुरुष को अनेक प्रकार की यातनाएं देने पर जरा भी क्षुब्ध नहीं हुआ। अतः अब मैं प्रतिज्ञाभ्रष्ट हो कर इसे ध्यान से विचलित किये बिना देवसभा में कैसे जाऊं ? इसलिए अब तो यही