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योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश
भगवान महावीर की ऐसी सुधामयी आँखों का कल्याण हो। इसका आशय यह है कि ऐसे सामर्थ्य योग से युक्त प्रभु को हमारा वन्दन-नमस्कार हो। उक्त बात की पुष्टि के लिए महावीर प्रभु के जीवन का एक वृतान्त दे रहे हैं :
भगवान महावीर को महाकरुणा एक गांव से दूसरे गांव और एक शहर से दूसरे शहर विहार करते हुए भगवान महावीर एक बार म्लेच्छ-कुलों की बस्ती वाली दृढ़भूमि में पधारे । अष्टम मक्त-प्रत्याख्यान (तेले) की तपस्या करके वे पेढालगांव के निकट पेढाल नामक वन में पोलाश नाम के मन्दिर में प्रवेश कर एक प्रासूक शिलातल पर आरूढ़ हो कर घुटनों तक हाथ लम्बे करके, शरीर को झुका कर अपने स्थिर अन्तःकरण से आंख बन्द किये बिना एकरात्रि-सम्बन्धी महाप्रतिमा धारण करके ध्यानस्थ खड़े रहे। उस समय सौधर्मसभा में चौरासी हजार सामानिक देवों से परिवृत, तैतीस त्रायर्यास्त्रश, तीन पारिपद्य, चार लोकपाल, असंख्य प्रकीर्णक देव तथा अपने शरीर पर चारों ओर से वस्तर और हथियार बाधे, चौरासी हजार अंगरक्षक देव-सेनाओं से परिवृत, सात मेनापति, अभियोगिक, किल्विपिक आदि देव-देवियो तथा तीन प्रकार के वाद्य आदि से सुमज्जित हो कर विनोदपूर्ण समय बिताते हुए, दक्षिण लोकाधं के रक्षक शक नाम के देवेन्द्र ने सिंहासन पर बैठे-बैट अवधिज्ञान से भगवान् को उस स्थिति में जाना । वे तुरन्त खड़े हुए और पादुका त्याग कर उत्तरासग धारण कर, दाहिना पैर भूमि पर रख कर और बांया पैर जरा ऊंचा करके भूतल पर मस्तक झुका कर शस्तव (नमुत्थुणं) से भगवान् की स्तुति करने लगे। इन्द्र का अंग-अंग पुलकित हो रहा था। उसने खड़े होकर सारी सभा को सम्बोधित करते हुए कहा-'सौधर्म देवलोकवासी उत्तम देवो! तुम्हें भगवान महावीर की अद्भुत महिमा सुनाता हू, सुनो। पांच समिति के धारक. तीन गप्ति से पवित्र. क्रोध-मान-माया और लोभ के वश करने वाले, आथवरहित, द्रव्य-क्षेत्रकाल और भाव मे निर्ममत्वी, वृक्ष या एक पुद्गल पर दृष्टि एकाग्र करक कायोत्सर्ग (ध्यान) में स्थिर महावीर २बामा को देव, दानव, यक्ष, राक्षस, नागकुमार, मनुष्य या तीन लोक में से कोई भी ध्यान से विचलित करने में समर्थ नहीं है।'
इन्द्र के ये वचन मुन कर एक अभव्य, गाढ़मिथ्यात्वी संगम नामक इन्द्र का सामानिक देव भौहें तान कर, विकराल आंखें बना कर, क्रोध से ओठ चबा कर, आंख लाल करते हुए बोला "हे देवेन्द्र ! एक मनुष्य का इतना बढ़चढ कर गुणगान करके उसे ऊँचे शिखर पर चढ़ाना, सत्यासत्य के विवाद में आपकी स्वच्छंदनायुक्त प्रभुता का परिणाम है । यह असम्भव है कि मन्यलोक के व्यक्ति को देव भी ध्यान मे चलायमान नही कर सकते । अतः स्वामी का ऐसा उद्धत वचन हृदय में कैसे धारण किया जा सकता है ? कदाचित धारण भी कर लिया गया हो, फिर भी उसे सबके सामने प्रगट कैसे किया जा सकता है ? गगनचुम्बी उच्चशिखरयुक्त, एवं पातालमूलगामी जिस मेरुपर्वत को देव दो हाथों से ले की तरह उठा कर फैक सकता है, पर्वतों सहित समग्र पृथ्वी को डुबा सकता है, महासमुद्र की छोटी-सी नदी के समान बना सकता है, अनेक पर्वतों से बोझिल विशाल पृथ्वी को अनायास ही अपने भुजदंड से उठा सकता है, ऐसी असाधारण ऋद्धि, महापराक्रम और इच्छामात्र से कार्यसिद्धि की उपलब्धि से युक्त देवों के सामने मनुष्य क्या चीज है ? मैं अभी इन्द्र द्वारा प्रशंसित व्यक्ति के पास जा कर उसे ध्यान से विचलित करता हूँ। यों कह कर हाथ से पृथ्वी को ठोक कर वह देव सभामंडप में आ खड़ा हुआ। इन्द्र ने उसे बहुतेरा समझाया कि श्रीअरिहंतदेव दूसरों से सहायता लिए बिना स्वयं अखंड तप करते हैं", किन्तु जब वह रंचमात्र भी