________________ अर्थात् जिस व्याख्या-ग्रन्थ में सूत्र (या मूल ग्रन्थ) में आए पदों/शब्दों के आधार पर सूत्रार्थ (मूल ग्रन्थ के आशय) को विस्तृत रूप से स्पष्ट किया जाता है, साथ ही स्वयं भी ग्रन्थकार (भाष्यकार) स्वरचित पदों को प्रस्तुत कर उनका भी वर्णन, निरूपण या विशेष स्पष्टीकरण करता है, वह व्याख्यान-ग्रन्थ 'भाष्य' होता है। संक्षेप में, भाष्यग्रन्थ वह होता है जो मूल ग्रन्थ को तो स्पष्ट करता ही है, साथ ही प्रासंगिक या आनुषंगिक रूप से अपेक्षित अनेकानेक विषयों का निरूपण भी उसमें किया जाता है, जैसे- सम्भावित शंका-पूर्वपक्ष, उसका समाधान, अन्य आचार्यों के अभिमत, प्राचीन आगम परम्परा व अन्य दर्शन-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में विषय की संगति एवं सम्भावित विसंगति का निराकरण, विशिष्ट शब्दों की व्याकरण-सम्मत व्युत्पत्ति या नियुक्ति, आगमिक अनुयोग-पद्धति, नय-निक्षेपपद्धति आदि के प्रकाश में विषय का स्पष्टीकरण, आदि-आदि। नि:संदेह प्रस्तुत 'विशेषावश्यक भाष्य' में भाष्यग्रन्थ की सारी विशेषताएं पूर्णतया साकार हुई हैं। यही कारण है कि यह ग्रन्थ जैन तत्त्वज्ञान के लिए, विशेषत: पंचविध ज्ञान तथा जीव-अजीव आदि पदार्थों को जानने-समझने के लिए, यह एक विश्वकोश (इनसाइक्लोपीडिया) के समान है। भाष्य और भाष्यकर्ता के विषय में विस्तृत विवरण आगे भी दिया जा रहा है। ... उक्त समस्त विवरण को निम्नलिखित चार्ट रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है : 32आगम आवश्यक सूत्र आवश्यक नियुक्ति . (लगभग- 1600 गाथाएं) (आवश्यक सूत्र पर प्राकृत पद्यात्मक टीका) रचयिता- आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) समय-वि.5-6 शती. विशेषावश्यक भाष्य (3600 से अधिक गाथाएं) (आवश्यक सूत्र के प्रथम सामायिक अध्ययन पर जो 'आवश्यक नियुक्ति' है, उस पर प्राकृत पद्यात्मक टीका) रचयिता- आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण समय-विक्रम, छठी-सातवीं शती शिष्यहितावृत्ति (संस्कृत-गद्य में, 28 हजारोक प्रमाण) रचयिता- आचार्य मलधारी हेमचन्द्र समय-विक्रम 12 वीं शती RBSCRORORSCROR [19] ROOBCRORR8308800R