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ऐसे छद्मवेश का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। सुकुमारी अल्पवृक्ष होगीमैं उसे इस रूप में देखें, यह न्यायसंगत नहीं होगा। ऐसा सोचकर विक्रमा ने रूपमाला की ओर देखकर कहा-'इस प्रकार जाने में कुछ संकोच का अनुभव हो रहा है।'
'इसमें संकोच कैसा? तुम जाओ, मैं यहीं बैठी हूं।' रूपमाला ने कहा।
विक्रमा का हृदय कांप उठा। उसने दासी की ओर देखकर कहा'राजकुमारीजी को मेरा प्रणाम कहना। वे वस्त्र-परिवर्तन कर लें, तब मैं उनसे मिलूंगी-यहां बैठे रहने में मुझे कोई संकोच नहीं है।'
दासी तत्काल बाहर चली गई।
लगभग दो घटिका के बाद सुकुमारी स्वयं बैठक खंड में आयी। राजकन्या को देखते ही रूपमाला और विक्रमा-दोनों खड़ी हो गईं।
विक्रमा ने विनम्र स्वरों में कहा- 'राजकुमारी की जय हो! आपका चित्त तो प्रसन्न है?'
'हां, सखी! तुमको देखकर मेरा चित्त अति प्रसन्न हो गया है', कहकर राजकुमारी एक आसन पर बैठ गई और रूपमाला से कहा- 'रूप! कल रात कब तक जागरण हुआ था?' रूपमाला बोली-'प्रात:काल तक जागना पड़ा था। कल रात देवी विक्रमा ने सबका मन जीत लिया।' और उसने रात में घटित चमत्कार की बात कह सुनाई।
पूरी बात सुनकर सुकुमारी ने कहा- 'ओह ! मैं तो मंदभाग्य ही रही।'
बीच में ही विक्रमा बोल पड़ी-'कुमारीजी! यदि आप वहां आती तो मंदभाग्य की बात होती, आज मैं स्वयं आपके पास उपस्थित हो गई हूं।'
'तुम्हारा भावार्थ समझ गई, सखी! उत्तम कुल में जन्म लेना भाग्य का ही फल है। किन्तु गौरव, मर्यादा और विवेक सहित जीवन जीना बहुत कठिन होता है।' राजकन्या ने भावभरे स्वरों में कहा।
फिर रात की चर्चा कर रूपमाला अपने भवन की ओर चली गई।
राजकन्या ने विक्रमा के निवास के लिए अतिथिगृह में व्यवस्था न करा, अपने ही खंड में व्यवस्था करवाई थी।
सायं भोजन आदि से निवृत्त होकर सुकुमारी विक्रमा को साथ लेकर उद्यान में चली गई।
घूमते-घूमते दोनों एक कृत्रिम सरोवर के किनारे पर आयीं, तब विक्रमारूपी विक्रमादित्य ने सरोवर में कमल पुष्पों की ओर देखकर कहा-'अद्भुत! अपूर्व!'
'क्या, सखी?'
'वीर विक्रमादित्य ६५