________________
अग्निवैताल ने हंसते हुए कहा- 'मेरी जाति आपसे भिन्न है, अन्यथा मुझे महामंत्री का भी भय लग रहा है।'
सभी हंस पड़े।
विक्रम ने देवकीर्ति द्वारा प्रदत्त रूप-परिवर्तन गुटिका का प्रयोग किया। वे अपने मूल पुरुष रूप में आ गए। उन्होंने पुरुष का वेश धारण किया।
उसके पश्चात् पांचों एक मध्यम गांव की सीमा में आए और छोटे-से उपवन में ठहर गए। भोजन आदि की व्यवस्था करने के लिए भट्टमात्र और अग्निवैताल दोनों गांव में गए। गांव में एक ब्राह्मण के घर पर रसोई तैयार करवाई और अग्निवैताल के लिए बहुत सारी मिठाई बनवाई। दोनों वापस उसी उपवन में आ गए।
पांचों गांव में गए। भोजन आदि से निवृत्त होकर सभी साथ में बैठकर चर्चा करने लगे। घोड़ों के लिए चारा-पानी का प्रबन्ध भी कर दिया।
सामान्य चर्चा करते-करते भट्टमात्र ने कहा- 'महाराज! आप अकेले यहां रहें, यह उचित नहीं लगता-आप भी हमारे साथ ही अवंती चलें।'
'साथ चलने में मुझे कोई बाधा नहीं है किन्तु अवंती से प्रस्थान करने से पूर्व मैंने अपनी प्रियतमा को कहा था कि मैं राजकन्या सुकुमारी पर विजय प्राप्त करके ही लौटूंगा।'
मदनमाला ने मुस्कराते हुए कहा-'कृपानाथ! आपने विजय प्राप्त कर ली है। राजकन्या के मन से आपने पुरुष-द्वेष को दूर कर दिया है।'
'बहन! जब तक उसका पाणिग्रहण नहीं हो जाता, तब तक कार्य अधूरा ही गिना जाएगा।'
तत्काल महामंत्री बोला-'तो फिर हम सब वेश बदलकर प्रतिष्ठानपुर में लौट जाएं और नगरी की किसी पान्थशाला में ठहरें। आप कलाकार के रूप में कार्य सिद्ध कर राजकन्या के साथ विवाह करें-फिर हम सब साथ ही चलेंगे।'
विक्रमादित्य ने महामंत्री का हाथ पकड़कर कहा- 'जहां लगाव अत्यधिक होता है, वहां बद्धि बेचारी बन जाती है। मित्र! राजकन्या के हृदय में पुरुषों के प्रति अब द्वेष नहीं रहा, यह सच है। पर वह किसी राजा या राजकुमार के साथ विवाह करना नहीं चाहती। वह यह मानती है कि राजा के अन्त:पुर में मान-सम्मान मिलता है, पर पति का सुख उसे पूरा प्राप्त नहीं होता। यदि यह बात उसके मन में नहीं होती तो मैं पहले ही अपना परिचय देकर उससे विवाह कर लेता और मुझे कलाकार की बात नहीं सोचनी पड़ती।'
___ कामकला बोली-'कृपानाथ! आप कौन हैं, यह बात तो राजकन्या जान ही लेगी !' ११६ वीर विक्रमादित्य