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'तू आराम से इस आसन पर बैठ....मैं देखकर उसे यहां भेजती हूं। तेरी पेटी में कोई जोखिम की वस्तु है-दे, मैं संभालकर उसे रख दूंगी।' कहकर रूपश्री ने उसके हाथ से पेटिका खींच ली।
__ लक्ष्मी अवाक् होकर उसकी ओर देखती रही। रूपश्री ने जोर से हंसते हए कहा-'लक्ष्मी! तू वास्तव में ही रूपवती है। कोई देवरमणी भी तेरी तुलना में नहीं आ सकती। अब तुझे उस पागल के साथ भटकना नहीं पड़ेगा। यहां तुझे स्वर्ग से भी अधिक सुख मिलेगा। नये-नये पुरुषों का मनोरंजन करती हुई तू मेरे इस भवन की शोभा को बढ़ाएगी। तेरे चरणों में सोने और रत्नों के ढेर लगेंगे। तेरी आज्ञा मानने के लिए मेरी सभी दासियां एक पैर पर खड़ी मिलेंगी।'
__ 'आप यह क्या कह रही हैं ? मेरे स्वामी कहां गए हैं ? ऐसा कहकर यदि आप मेरी परीक्षा करना चाहती हैं तो कृपा करके आर्य नारी की मर्यादा का परिहास न करें।'
बीच में ही रूपश्री खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसने हंसते-हंसते कहा'लक्ष्मी! तेरा पति कौन है, यह भी मैं नहीं जानती। तेरे लिए खाद्य-सामग्री लेकर वह बेचारा वहां गया होगा। तुझे वहां न पाकर वह अपने मार्ग चला गया होगा अथवा नगर में कहीं भटकता होगा।'
'तो यह घर किसका है?'
'लक्ष्मीपुर नगर की प्रसिद्ध वेश्या रूपश्रीका यह भवन है। मेरे पास सातआठ नवयौवनाएं हैं। किन्तु उनमें तेरे-जैसा तेज, रूप या आकर्षण नहीं है, इसलिए मैं तुझे यहां लायी हूं।'
'चुप रह, कुलटा ! मेरी पेटी मुझे सौंप दे। मैं अपने स्वामी को स्वयं ढूंढ लूंगी।'
___ रूपश्री अट्टहास करती हुई बोली- 'ऐसा रोब मत जमा। एक बात तु निश्चित रूप से जान ले कि अब तू इस खंड से बाहर नहीं निकलेगी। आज रात को ही तेरे यौवन को रसमय बना दूंगी। यहां के नगरपालक का युवा पुत्र तेरा खूब मनोरंजन करेगा। तेरे चरणों में रत्नालंकारों का ढेर लगा देगा। अब तू अपने पति को भूल जा।'
'मैं कदापि इस निन्द्यकार्य में नहीं पडूंगी।' 'लक्ष्मी! सुख के लिए सब कुछ करना पड़ता है।'
लक्ष्मी बोली- 'मैं पतिव्रत धर्म को प्राणों से भी अधिक मानती हूं। मैं मरना पसन्द करूंगी, किन्तु पतिव्रत धर्म को नहीं छोडूंगी।'
'बेटी! उतावली मत बन! मांगने से मौत नहीं मिलती और भोग भोगने योग्य जवानी में मौत शोभा नहीं देती।'
२६८ वीर विक्रमादित्य