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'आप स्वयं विक्रमादित्य! महाराज! आपकी यशोगाथा चारों ओर प्रसारित हो रही है। मुझे क्षमा करें, मैं तो आपको एक सामान्य...।'
बीच में ही विक्रम ने कहा-'पंडितजी! क्षोभ करने का कोई कारण नहीं है। मैं तो आप-जैसे विद्वानों की चरणरज हूं। आप यहां आराम करें। मैं यहां के महाराज से मिल लूं।'
ज्यों ही विक्रम खंड के बाहर आए, उससे पूर्व ही नगरी का राजा और उसकी कन्या चन्द्रावती वहां आ पहुंची।
राजा विजयसेन ने अवंतीनाथ विक्रमादित्य का हार्दिक आभार माना और ऐसे दुष्ट राक्षस का अंत करने के लिए बधाई दी।
इसके पश्चात् नगरी के विषय की चर्चा करते-करते विजयसेन ने कहा'महाराज! आपको मेरी एक प्रार्थना स्वीकार करनी होगी।'
वीर विक्रम समझ गए। उन्होंने हंसते हुए कहा- 'महाराज! आपका मनोभाव मैं समझ गया हूं।आपका अनुरोधस्वीकार करने में मुझे और कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु मेरा अन्त:पुर रानियों से भरा पड़ा है और मेरा अधिक समय बाहर ही बीतता है। यदि आप अपनी कन्या का सुख चाहते हैं तो....'
बीच में ही विजयसेन ने कहा-'महाराज! मेरी कन्या के संकल्प को आपने जान ही लिया है। अब कोई संशय और भय है ही नहीं। आप जैसे महान् स्वामी को पाकर मेरी कन्या धन्य हो जाएगी। चन्द्रावती केवल रूपवती ही नहीं है, यह विनय आदि गुणों की भंडार भी है। यह आपके जीवन में कभी बाधक नहीं बनेगी।'
विक्रम के लिए अब कोई दूसरा विकल्प नहीं था।
उसी समय वैताल मिठाइयों के बर्तन लेकर आ पहुंचा। वीर विक्रम ने वैताल से कहा-'मित्र! आ गए ? बताओ, पंडितजी की पत्नी क्या कर रही है?'
'वह तो मृत्यु की भेंट हो गई....उसका अभी तक दाह-संस्कार भी नहीं हुआ है। भवन में पंडितजी की पत्नी सूखी लकड़ी की भांति पड़ी है।'
'स्वयं के कर्म का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है। वह दुष्ट नारी अन्त में अपने ही जाल में फंसी। पंडित ने कहा।
फिर सभी ने भोजन किया।
तीन-चार दिन में ही नगरी के लोग आने लगे। धीरे-धीरे नगरी आबाद होने लगी और छठे दिन पंडित सोमशर्मा ने वीर विक्रम और राजकन्या चन्द्रावती का विवाह करा दिया।
राजा विजयसेन ने अवंतीनाथ को बहुत स्वर्ण समर्पित किया।
३०० वीर विक्रमादित्य